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________________ सिद्धों के अनेक भेदों का प्रतिपादन सामान्यतया संसार में अनेकता, सिद्धि में एकता, जगत में नानात्व, ब्रह्म में एकत्व को रूपायित किया जाता है। लेकिन जैन-दर्शन अनेकान्तवादी है। जहाँ भी पक्ष है तो प्रतिपक्ष भी है। सिद्धि का स्वरूप भी अनेकान्त के नियम का अपवाद नहीं । वर्तमान स्थिति के आधार पर सिद्ध-आत्माएं सभी समान हैं, एक रूपता के सूत्र से आबद्ध हैं। साथ ही पूर्व पर्याय की अपेक्षा से उनमें अनेकान्त या बहुरूपता भी विद्यमान हैं । काल पर्याय सापेक्ष यदि सिद्ध केवल ज्ञान के भेद करें तो दो स्थितियाँ सामने आती हैं साध्वी श्रुतयशा 1. अनन्तरसिद्ध केवल ज्ञान- सिद्ध अवस्था में प्रथम क्षणवर्ती केवलज्ञान को अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान कहा जाता है। एक प्रकार से यह चरम समय अयोगिभवस्थ केवलज्ञान ही है। चूंकि जो संसारावस्था का अन्तिम क्षण है वही मुक्तावस्था का प्रथम क्षण है। 2. परम्पर सिद्ध केवलज्ञान- प्रथम समयवर्ती सिद्ध के अतिरिक्त सभी सिद्धों का केवलज्ञान परम्परसिद्ध केवलज्ञान कहलाता है । देववाचक ने अप्रथम समयसिद्ध, द्वितीय समयसिद्ध, तृतीयसमयसिद्ध यावत् अनंत समयसिद्ध भेद किए हैं। अतः परम्परसिद्ध के अनंत भेद हो सकते हैं । विशेषता यह है कि सिद्धों के प्रथम समय सिद्ध और अप्रथम समय सिद्ध- ये भेद तो हो सकते हैं पर भवस्थ केवालियों के समान चरमसमयसिद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि सिद्ध अवस्था सादि अनन्त हैं। अनन्तर सिद्धों के देववाचक ने पन्द्रह भेद किए हैं। वे भेद स्थानांगसूत्र एवं प्रज्ञापना सूत्र में भी उपलब्ध होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में सिद्धों के ये पन्द्रह भेद तो तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only 41 www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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