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________________ तुम लोगों ने नहीं देखा। देखते तो मेरी ही तरह तुम लोग भी मनुष्य-जाति की जययात्रा के प्रति शंकालु हो जाते।... तूने 'बाणभट्ट की आत्मकथा' छपवा दी, यह अच्छा ही किया। पुस्तक रूप में न सही, पत्रिका रूप में छपी कथा को देख सकी हूँ, यही क्या कम है। अब मेरे दिन गिने ही रहे हैं।... मैं अब फिर तुम लोगों के बीच नहीं आ सकूँगी। मैं सचमुच संन्यास ले रही हूँ। मैंने अपने निर्जन वास का स्थान चुन लिया है। यह मेरा अन्तिम पत्र है। 'आत्मकथा' के बारे में तूने एक बड़ी गलती की है। तूने उसे अपने 'कथामुख' में इस प्रकार प्रदर्शित किया है मानो वह 'आटो-बॉयोग्राफी' हो। ले भला! तूने संस्कृत पढ़ी है, ऐसी ही मेरी धारणा थी, पर यह क्या अनर्थ कर दिया तू ने? बाणभट्ट की आत्मा शोण नद के प्रत्येक बालुका-कण में वर्तमान है। छि: कैसा निबोध है तू, उस आत्मा की आवाज तूझे नहीं सुनाई देती?... तुझे इतना प्रमाद नहीं शोभता। उस भाग्यहीन बिल्ली ने बच्चों की एक पल्टन खड़ी कर दी है।... मैं कहाँ तक सम्हालूँ। जीवन में एक बार जो चूक हो जाती है वह हो ही जाती है। इस बिल्ली का पोसना भी एक भूल ही थी। तुमसे मेरी एक शिकायत बराबर रही है। तू बात नहीं समझता। भोले, 'बाणभट्ट' केवल भारत में ही नहीं होते। इस नर-लोक से किन्नर-लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है। तूने अपनी दीदी को कभी समझने की चेष्टा भी की! प्रमाद, आलस्य और क्षिप्रकारिता- तीन दोषों से बच। अब रोज-रोज तेरी दीदी इन बातों को समझाने नहीं आएगी। जीवन की एक भूल-एक प्रमाद- एक असमंजस न जाने कब तक दग्ध करता रहता है। मेरा आशीर्वाद है कि तू इन बातों से बचा रहे । दीदी का स्नेह। -कै." इसे पढ़ कर आचार्यजी के मन में जो प्रतिक्रिया हुई उसका भी उल्लेख यहाँ आवश्यक है- "... मुझे याद आया कि दीदी उस दिन (राजगृह से लौटने के दिन) बहुत भाव-विह्वल थीं। उन्होंने (राजगृह में मिले) एक श्रृगाल की कथा सुनानी चाही थी। उनका विश्वास था कि (वह) श्रृंगाल बुद्धदेव का समसामयिक था। क्या बाणभट्ट का कोई समसामयिक जन्तु भी उन्हें मिल गया था? शोण नद के अनन्त बालुका-कणों में से न जाने किस कण ने बाणभट्ट की आत्मा की यह मर्मभेदी पुकार दीदी को सुना दी थी। हाय, उस वृद्ध हृदय में कितना परिताप संचित है! अस्त्रियवर्ष की पवनकुमारी देवपुत्र-नन्दिनी क्या आस्ट्रिया-देशवासिनी दीदी ही हैं ? उनके इस वाक्य का क्या अर्थ है कि 'बाणभट्ट केवल भारत में ही नहीं होते।' आस्ट्रिया में जिस नवीन 'बाणभट्ट' का आविर्भाव हुआ था, वह कौन था। हाय, दीदी ने क्या हम लोगों के अज्ञात अपने उसी प्रेमी की आँखों से अपने को देखने का प्रयत्न किया था।... दीदी के सिवा और कौन है जो इस रहस्य को समझा दे? मेरा मन उस 'बाणभट्ट' का सन्धान पाने को व्याकुल है। मैंने क्यों नहीं दीदी से पहले ही पूछ तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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