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यूरोप की स्त्रियाँ सब कुछ कर सकती हैं ? गलत बात है। हम भी पराधीन हैं। समाज की पराधीनता जरूर कम हैं, पर प्रकृति की पराधीनता तो हटाई नहीं जा सकती। आज देखती हूँ कि जीवन के 68 वर्ष व्यर्थ ही बीत गए।"
दीदी की आँखें गीली हो गईं। उनका मुख कुछ और कहने के लिए व्याकुल था, पर बात निकल नहीं रही थी। न जाने किस अतीत में उनका चित्त धीरे-धीरे डूब गया। जब ध्यान भंग हुआ, तो उनकी आँखों से पानी की धारा बह रही थी और वे उसे पोंछने का प्रयत्न भी नहीं कर रही थीं। आचार्य जी ने अनुभव किया कि दीदी किसी बीती हुई घटना का ताना-बाना सुलझा रही हैं।
आचार्य जी ने कागजों को पढ़ा। शीर्ष के स्थान पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था 'अथ बाणभट्ट की आत्मकथा लिख्यते'। पढ़ने के बाद आचार्य जी को लगा कि दीर्घ काल के बाद संस्कृत साहित्य में एक अनूठी चीज प्राप्त हुई है। आचार्य जी को कलकत्ता में एक सप्ताह लग गया। इस बीच दीदी बिना पता-ठिकाना दिये काशीवास करने चली गईं। दो साल तक वह कथा यूँ ही पड़ी रही। एक दिन अचानक मुगलसराय स्टेशन पर गाड़ी बदलते हुए आचार्य जी को वे फिर मिल गईं। आचार्य जी को देख कर जरा भी प्रसन्न नहीं हुईं। केवल कुली को डाँटकर कहती रही “संभाल के ले चल, तू बड़ा आलसी है।" आचार्य जी ने उन्हें कहा, "दीदी वह आत्मकथा मेरे ही पास पड़ी है।" दीदी बड़े गुस्से में थीं। रुकी नहीं। गाड़ी में बैठकर उन्होंने एक कार्ड फेंककर कहा, "मैं देश जा रही हूँ। ले, मेरा पता है। ले भला।"
पुस्तक के प्रकाशन के बीच आचार्य जी को आस्ट्रिया से दीदी का पत्र मिला। वह उपसंहार में संकलित है। इस पत्र से कथा का रहस्य और भी घना होता है। साथ ही उसमें लक्षित दृश्य के ऊपर की अवांछित छाया मन में टीस-सी पैदा करती है। उस छाया की, उस अदृश्य की अनुभूति आपको भी हो, इस दृष्टि से उस पत्र को अंशतः नीचे उद्धृत कर रहा हूँ। मगर उद्देश्य केवल उतना ही नहीं। पत्र का कलेवर जितना छोटा है, कथ्य उतना ही गम्भीर
और बहुमूल्य है। अतीत के अतल गह्वर से अवतरण लेती कोई दिव्यात्मा जैसे बतला रही है कि किस तरह सूक्ष्म जगत में सब एक ही ध्रुव पर स्थित हैं। ऊँचा जीवन-दर्शन लिए यह पत्र एक अभिनव, अनूठी अन्तः सृष्टि का बोध कराता है। अदृश्य में से झाँकते उसके इस लावण्य को भी निहारना आप न भूलें।
"छ: वर्षों से आस्ट्रिया के दक्षिणी भाग में निराशा औ पस्तहिम्मती की जिन्दगी बिता रही हूँ। तुमने युद्ध के घिनौने समाचार पढ़े होंगे, लेकिन उसके असली निघृण क्रूर रूप को
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133
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