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मरण-काल में संलेखना, समाधिमरण व्रत का पालन करने से अन्तरंग भावों में शुद्धता आती है। कषाय मंद पड़ती है। अत: संलेखना धारण करना भी अहिंसा को बढ़ाना है। इस कारण समाधिमरण धारण करना अहिंसा को अधारभूमि प्रदान करना है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में अहिंसा पालन के लिए ही सभी व्रतों का विधान किया गया है। अत: पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रन्थ जैन-धर्म की अहिंसा का प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं। इसमें सभी धर्मों की अहिंसक वृत्ति का समावेश हो गया है, जिसका सूत्र है कि जहां अहिंसा हैं वहां धर्म है, जहां हिंसा है वहां धर्म नहीं है। ग्रन्थकार अमृतचन्द्राचार्य ने निष्कर्ष रूप में कहा है कि जो पुरुष, विवेकी आत्मा अहिंसाव्रत की रक्षा के लिये अन्य समस्त शीलव्रतों का निरन्तर पालन करता है उस साधक व्यक्ति को मोक्षलक्ष्मी उत्सुक पति को स्वयं वरण करने वाली कन्या के समान स्वयं वरण कर लेती है अर्थात् पूर्ण अहिंसक साधक को, मुनि को कोई अलग से प्रयत्न नहीं करना है। यथा
इति यो व्रतरक्षार्थ सततं पालयति सकलशीलानि। वरयति पतिंवरेव स्वयमेव तमुत्सुका शिवपदश्रीः ॥ 180॥
राग और द्वेष से मुक्त होना अहिंसा है। सब जीवों के प्रति संयम एवं समभाव रखना अहिंसा है। अहिंसा सब प्राणियों का कुशलक्षेम करने वाली है। जो प्राणियों की हिंसा से विरत रहता है उसके कर्म ढलान में पानी की तरह नहीं ठहरते हैं। अप्रमादी आत्मा अहिंसक है और जो प्रमादी है वह हिंसक है। इसलिए महावीर ने कहा -"उठो! प्रमाद मत करों प्रमादी को सब ओर से भय रहता है और अप्रमादी को कहीं से भी भय नहीं है। वस्तु-तत्त्व को जानने वाले व्यक्ति प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझ कर उन्हें पीड़ित नहीं करते। वे समझते हैं- जैसे कोई दुष्ट पुरुष मुझे मारता है, गाली देता है, बल से दास-दासी बना अपनी आज्ञा
का पालन कराता है, तब मैं जैसा दुःख अनुभव करता हूँ, वैसे ही दूसरे प्राणी भी मारनेपीटने, गाली देने, बल से दास-दासी बनाने, आज्ञा पालन कराने में दुःख अनुभव करते होंगे। इसलिये किसी प्राणी को मारना, कष्ट देना, बलात् आज्ञा मनवाना उचित नहीं है। अहिंसा में मैत्री है, सद्भावना है और सौहार्द्र है।"
सन्दर्भ :
व्यवहारनिश्चियौ य: प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्तनोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ।।- पुरुष. 8 विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्वम्। यत्तस्मादविचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम्।। - पुरुष् 15
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तलसा प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006
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