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________________ 1. तीन मकारों में हिंसा अष्टमूलगुण के पालन में तीन मकारों- मदिरा, मांस और मधु (शहद) का त्याग अनिवार्य माना गया है। इन तीनों को हिंसा का प्रमुख ठिकाना माना गया है। अनेक जीवों के वध के उपरान्त ही मदिरा बनती है। अत: मदिरा का पान करना महान् हिंसा और अनर्थों का घर है। मदिरा पीने से द्रव्यहिंसा और भाव हिंसा दोनों ही होती हैं। प्राणियों के वध के बिना मांस की उत्पत्ति ही संभव नहीं है। अत: मांस सेवन में तो हिंसा अनिवार्य हैं। अत: मांस को छूने और खाने में पूर्ण हिंसा है। इसी प्रकार मधुमक्खियों के वध से तैयार होने वाले मधु (शहद) में भी हिंसा अपरिहार्य है। जो अहिंसा आदि व्रतों को पालन करने वाले संयमी व्यक्ति हैं, उन्हें मदिरा, मांस, मधु आदि हिंसक पदार्थों का सेवन कभी नहीं करना चाहिए। आचार्य ने नवनीत (मक्खन) के सेवन का भी अहिंसक व्यक्तियों के लिए निषेध किया है। यथा मधु मद्य नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः। बल्भ्यंते न वतिना तद्वर्णा जंतवस्तत्र ॥71॥ इसी प्रकार पांच प्रकार के उदम्बर फलों - ऊमर, कठूमर, पाकर, बड़ और पीपल फल में भी त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। इनका सेवन भी हिंसाजनक है। जैन श्रावकों को इन आठ प्रकार के हिंसक पदार्थों के सेवन का त्याग तो करना ही चाहिए। तभी वे धर्मोपदेश सुनने के पात्र बनते हैं। उन्हें स्थावरहिंसा से यथाशक्ति बचना है और त्रसहिंसा का सर्वथा त्याग करना है, यही श्रावक बनने की कसौटी है। यथा धर्ममहिंसारूपं संशृण्वंतोपि ये परित्यक्तुम्। स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेपि मुंचतु ॥ 75॥ 2. अंधविश्वास एवं अज्ञानवश हिंसा कतिपय अंधविश्वासी, अज्ञानी, श्रद्धालुओं ने यह मान रखा था कि देवताओं को खुश करने के लिए उन्हें पशुबलि देनी चाहिए। अत: ऐसे मूढ़ लोग धर्मकार्य में हिंसा को पाप नहीं मानते थे। कुछ खुशामदी लोग अतिथि को देवता मानकर उसे अपना सबकुछ अर्पण करने की भावना से मांसाहार, मदिरा आदि से तृप्त करना अपना धर्म समझते थे। ऐसे अज्ञानियों को सचेत करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा कि धर्म-कार्य, अतिथिसेवा आदि में की गयी हिंसा संकल्पी हिंसा है। उसमें द्रव्यहिंसा एवं भावहिंसा दोनों का पाप लगता है। अतः ऐसी क्रूर हिंसा से बचना चाहिए और धर्म का तथा देव पूजा का वास्तविक स्वरूप समझकर अपना अज्ञान दूर करना चाहिए। देवता, अतिथि, मन्त्र औषधि आदि के निमित्त तथा अन्धविश्वास और धर्म के नाम पर संकल्पपूर्वक प्राणियों का घात नहीं करना चाहिए। 26 - अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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