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________________ अवसर पर अपनी रक्षा के लिए विरोध करने में जीववध हो जाता है, अपनी रक्षा करने में जहां पर उस आक्रमणकारी जीव का विरोध करने में जो वध होता है वहां पर अपनी रक्षा करने वाले का अभिप्राय जीव को मारने का नहीं किन्तु अपनी रक्षा करने का है, परन्तु आत्मरक्षा करते-करते यदि दूसरे जीव का वध होता है तो वह हिंसा विरोध से होने वाली विरोधिनी कही जाती है। आरम्भी हिंसा वह कहलाती है जो कि गृहस्थाश्रम में होने वाले आरंभ में से होती है। गृहस्थाश्रम में रहने वाले मनुष्यों को गृहस्थाश्रम सम्बन्धी आरम्भ करने ही पड़ते हैं, बिना आरम्भ किये गृहस्थाश्रम चल ही नहीं सकता। जल का बरतना, चौका, चूलि, ऊखरी, झाकड़ा, कपड़े धोना आदि सब कार्यों से आरम्भ होता है। जहां आरम्भ है वहां हिंसा का होना अनिवार्य है। इसलिये गृहस्थाश्रमी आरम्भी हिंसा से बच नहीं सकते, परन्तु आरम्भजनिक हिंसा की कमी अथवा स्वल्पता की जा सकती है। जिन कार्यों को विशेष आरम्भ के साथ किया जाता है उन्हें थोड़े आरम्भ से भी किया जा सकता है अथवा ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिसमें विशेष आरम्भ होता हो, अथवा जिन आरम्भों में अधिक जीवों के वध की सम्भावना हो उन आरम्भों को नहीं करना चाहिये। इस प्रकार गृहस्थाश्रम में रहने वाले विवेकी पुरुष आरम्भी हिंसा का बहुत कुछ बचाव कर सकते हैं। उद्योगिनी हिंसा वह कहलाती है तो गृहस्थाश्रमी मनुष्यों के उद्योग धंधों से होती है। किसी प्रकार के व्यापारी द्वारा अनाज भरने में, मिल खोलने में, दुकान करने में, खेती आदि सभी कार्यों का जो उद्योग (प्रयत्न) किया जाता है उसमें जो जीवों की हिंसा हो जाती है उसे उद्योगिनी हिंसा कहते हैं। इस हिंसा में भी उसी प्रवृत्ति का विचार करना इष्ट है कि जिससे जीव-वध अति स्वल्प है। जिनागम का सार : यत्नाचार आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा-अहिंसा के विवेक को सूत्र रूप में पहले रखा है, फिर उसकी व्याख्या की है। वे कहते हैं कि रागादि भावों की उत्पत्ति हिंसा है और शुद्ध भावों का अनुभव अहिंसा है। यथा अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥ 44॥ जैन सिद्धान्त में हिंसा का लक्षण "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' प्रमाद के योग से प्राणों का नष्ट करना हिंसा है, यह कहा गया है। प्राणों के नष्ट करने के पूर्व प्रमत्तयोग विशेषण दिया गया है। इस प्रमादयोगरूप पद से सिद्ध होता है कि जहां पर प्रमादयोग नहीं है किन्तु जीव के प्राणों का घात है वहां पर हिंसा नहीं कहलाती और जहां पर प्राणों का घात 24 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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