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________________ ' का नाम भाव-हिंसा है। जिसमें आत्मीय भावों की हिंसा होती है उसे ही भावहिंसा कहते हैं। वास्तव में हिंसा का स्वरूप यही है और इतना ही है। द्रव्यहिंसा को - शरीर के किसी अवयव की अथवा समस्त शरीर की हिंसा को (आयु-विच्छेद को) भी भावहिंसा के होने से ही हिंसा में गर्भित किया गया है। जो कोई किसी को शारीरिक कष्ट पहुंचाता है वहां आत्मा के परिणामों को दुःख पहुंचता है, इसलिए द्रव्यहिंसा हिंसा में गर्भित हो चुकी। इसी प्रकार जिसजिस कार्य में आत्मा के परिणामों की हिंसा होती हो वे सब हिंसा में गर्भित हैं, जैसे- झूठ बोलना, चोरी करना, कुशील सेवन करना, तृष्णा बढ़ाना, हंसना, रोना, राग-द्वेष करना इत्यादि सब हिंसा के ही स्वरूप हैं। जितने भी विकृत भाव हैं वे सब हिंसास्वरूप हैं, इसलिये संसार में जितने भी पापों के भेद-प्रभेद कहे जाते हैं वे सब हिंसा के ही दूसरे नाम हैं। यथा आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् सर्वमेव हिंसैतत्। अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ 42॥ इसलिये केवल मन-वचन-काय की प्रवृत्ति हिंसा का कारण नहीं है, किन्तु सकषायप्रवृत्ति ही हिंसा का कारण है, इसीलिये 'कषाययोगात्' यह हेतुवाक्य दिया गया है। जहां पर कषायपूर्वक योग है वहां चाहे भावहिंसा हो, चाहे द्रव्यहिंसा हो, दोनों ही हिंसा में गर्भित हैं अथवा किसी जीव की हिंसा भी हो, अपने भावों में ही सकषाय परिणाम हो तो अपनी ही हिंसा है। मूलरूप से हिंसा चार भेदों में बंटी हुई है- 1. संकल्पिनी, 2. विरोधिनी, 3. आरंभिणी और 4. उद्योगिनी। इन चार भेदों में सबसे बड़ी और सबसे प्रथम त्याज्य संकल्प से होने वाली हिंसा है, जहां पर भावों में यह संकल्प कर लिया जाता है कि मैं इस जीव को मार डालूं अथवा इसे दुःख पहुँचाऊं वहां पर हिंसा करने का अभिप्राय रहने से उसे संकल्प से होने वाली हिंसा कहते हैं अर्थात् हिंसा के अभिप्राय से की गई हिंसा को संकल्पिनी हिंसा कहते हैं। जो जीव संकल्पिनी हिंसा करने के लिए उद्यमी होता है उसके द्वारा दूसरे जीव का घात हो अथवा न हो, परन्तु उसे तो हिंसा से होने वाला पापबंध हो ही जाता है। यही बात लोकनीति में भी पायी जाती है, जो कोई किसी को मारने के लिए तलवार या लाठी का प्रयोग करता है उससे वह नहीं भी मारा जाय तो भी प्रयोग करने वाले को सरकार उसे अपराधी में शामिल करती है, जो कि मारने वाला है। यह संकल्पी हिंसा तीव्र कषायों के उदय से होती है। विरोधिनी हिंसा उसे कहते हैं कि जहां पर जीव को मरने के या उसे दुःख पहुंचाने के तो भाव नहीं हैं परन्तु दूसरा जीव अपने को पहले मारना चाहे या दुःख देना चाहे तो इस तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2006 0 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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