________________
भी पास की समानान्तर पटरी पर उसी ओर जा रही हो और उसकी गति हमारी रेल की गति से अधिक तेज है तब भी वह रेल हमें धीमी गति से ही रेंगती हुई दिखायी देती है, क्योंकि एक ही दूरी को वह भी पार कर रही है और हमारी रेल भी पार कर रही है, अत: उस रेल की गति कम होगी। उस रेल की गति से हमारी रेल की गति घटाने पर जो गति आती है उस गति से वह रेल हमारी रेल को पार करेगी। इसी आधार पर यह बात कही जा रही है।) किन्तु ऐसा होता नहीं। इस स्थिति में भी प्रकाश की गति 186000 मील प्रति सेकेण्ड ही
रहती है। प्रकाश की गति के संबंध में उपर्युक्त तथ्य एक अबूझ पहेली बने हुए थे। उपर्युक्त तथ्य हमारी सामान्य समझ से इतने विपरीत हैं कि इन पर विश्वास नहीं होता और ये परीकथा के समान कपोल कल्पित प्रतीत होते हैं किन्तु विज्ञान में कोई भी बात बिना प्रयोग के स्वीकृत नहीं होती। 1887 में अमेरिका के दो वैज्ञानिक अल्बर्ट माइकल्सन और एडवर्ड मोर्ले ने एक प्रयोग किया जिसके आधार पर यह तथ्य सामने आये।
आईन्सटीन ने जब इस समस्या का सामना किया कि प्रकाश की गति उपर्युक्त प्रकार से सब दशाओं में समान कैसे रहती है तो उन्होंने यह निर्णय लिया कि देश और काल के संबंध में हमारी यह अवधारणा गलत है कि वह हर स्थिति में एक ही रहते हैं।
वस्तुतः गति को नापने के लिए हम समय और देश की दूरी को नापते हैं और यदि प्रकाश की गति हर स्थिति में एक ही रहती है जो कि हमारे तर्क के अनुसार नहीं रहनी चाहिए-तो इसका यह अर्थ होता है कि गति को मापने के दोनों साधन-समय और देश-काल जैसे नहीं रहते बल्कि बदल जाते हैं। समय और देश जो कि गति को मापने के साधन हैं, गति के साथ बदलते हैं। परिणामतः प्रकाश की गति हर स्थिति में समान इसलिए रहती है कि उसके नापने के साधन-देश और काल की तीव्रता के साथ बदल जाते हैं।
अभिप्राय यह है कि प्रकाश की गति में जो अन्तर हमें दिखाई देना चाहिए था वह अन्तर तभी दिखाई देता जबकि प्रकाश की गति को नापने के दो पैमाने देश और काल हर स्थिति में एक जैसे ही रहते किन्तु आईन्सटीन का निष्कर्ष यह है कि देश और काल के मानदण्ड के बदल जाने से गति की नाप भी बदल जाती है।
इस संदर्भ में जिन दो बातों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं1. पहली बात तो यह है कि देश और काल का छोटा बड़ा होना प्रकाश के
। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org