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जैन आगमों में वाणी-विवेक के सूत्र
मुनि विनोद कुमार
मनुष्य के विकास में वाणी का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण है। यदि मनुष्य के पास वाणी की विकसित संपदा नहीं होती तो इतने विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य और पशु में जो भेद रेखा है उसमें वाणी प्रमुख है। वाणी के द्वारा ही मनुष्य अपने चिन्तन को दूसरों तक पहुँचाता है और इसी के द्वारा अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाता है। जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान भी वाणी के द्वारा ही सम्भव है। वाणी मानव जीवन की एक बहुत बड़ी उपकारिणी है। वाणी की उपयोगिता तभी सिद्ध होती है जब उसका उपयोग संयत और विवेकपूर्वक होता है। विवेक के अभाव में समाधान देने वाली वाणी समस्या उत्पन्न कर देती है। जीवन में सफलता पाने के लिए वाणी का विवेक अत्यावश्यक होता है। विवेकशून्य वाणी वक्ता को वैसे ही गिरा देती है जैसे लगाम रहित घोड़ा अपने सवार को। इस प्रकार वाणी का महत्त्व संयम और विवेक सापेक्ष है।
दैनिक व्यवहार में आने वाली प्रयोगात्मक भाषा कैसी हो? इसका मार्गदर्शन जैन आगमों में काफी मिलता है। यद्यपि जैन आगमों में जितने भी उपदेश दिए गए हैं वे प्रायः साधुओं को सम्बोधित करके दिए गए हैं पर इसका अर्थ यह नहीं कि ये सूत्र गृहस्थों के लिए नहीं हैं। आगमों के सूत्रों का लक्ष्य व्यक्ति का आत्म विकास रहा है और उसकी उपयोगिता सार्वभौमिक, सार्वदेशिक और सार्वकालिक है। भले ही कोई साधु हो या गृहस्थ, इन सूत्रों को जो भी, जितना भी अपने जीवन में उतारेगा वह उतना ही लाभान्वित होगा। वाणी की कुछ ऐसी कसौटियाँ शास्त्रों में बतलाई गई है जिन पर कसकर यदि वाणी का प्रयोग किया जाए तो व्यक्ति अनेक समस्याओं से स्वयं को बचा सकता है।
वाणी का विवेक अपने आप में कला भी है और विज्ञान भी। जो व्यक्ति
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006
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