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वर्तमान जीवन है । इस दर्शन के अनुसार प्रत्येक पूर्ववर्ती अपने उत्तरवर्ती पर छाप छोड़कर स्वयं नष्ट हो जाता है। कारण नष्ट होने के कारण ही असत्कारणवाद सत् है और उत्तरवर्ती पर अपनी छाप छोड़ जाता है । अत: स्मृति, पुनर्जन्म और मोक्ष संभव है तात्पर्य यह है कि बौद्ध प्रतीत्यसमुत्पाद (असत्कारणवाद) को मानते हुए भी स्मृति, पुनर्जन्म और मोक्ष की व्याख्या करने में सफल होते हैं । इसीलिए प्रसिद्ध आचार्य नागार्जुन प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रशंसा करते हुए कहते हैं
यः प्रतीत्यसमुत्पादं प्रपञ्चोपशमं शिवम् । देशयामास समवुद्धस्तं वंदे वदतां वरम || 14
अर्थात् संक्षेप में प्रतीत्यसमुत्पाद व्यावहारिक दृष्टि से प्रपञ्च है और पारमार्थिक दृष्टि से प्रपञ्च का उपशम निर्वाण है।
सदसत्कार्यवाद - जैन दर्शन एक समन्वयवादी दर्शन है । अनेकान्तवाद को स्वीकार करने के कारण जैन दर्शन प्रायः दार्शनिक सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित करता है । कारण-कार्यवाद के सिद्धान्त में भी जैनदर्शन किसी प्रकार के एकान्तवाद को नहीं मानता है। जैन दर्शन को कोरा सत्कार्यवाद स्वीकार नहीं है, क्योंकि सत्कार्यवाद को स्वीकार करने पर विकास और परिवर्तन के लिए अवकाश नहीं रह जाता है। कोरा असत्कार्यवाद भी स्वीकार नहीं है, क्योंकि असत्कार्यवाद मानने पर परिवर्तन और विकास का आधार धराशायी हो जायेगा। किसी भी कारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति सिद्ध हो जायेगी । फिर गति में सहायक अधर्मास्तिकाय और स्थिति में सहायक धर्मास्तिकाय हो जायेगा जबकि ऐसा नहीं हो सकता ।
अतः जैन के सदसत्कार्यवाद के अनुसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में सत् भी होता है और असत् भी होता है। जैसे कार्य घड़ा मिट्टी में सत् भी है और असत् भी। चूँकि मिट्टी का घड़ा मिट्टी से बनेगा, अतः सत् है किन्तु मिट्टी के आकार (कारण) से घड़े का आकार (कार्य) भिन्न है, अतः असत् भी है। जैन दर्शन के अनुसार गुणपर्यायवद् द्रव्यम्'' अर्थात् द्रव्य गुण और पर्याय से युक्त है । द्रव्य के इसी स्वरूप से सद्सत्कार्यवाद को समझा जा सकता है । कार्यरूप द्रव्य गुण की दृष्टि से कारणरूप द्रव्य में अन्तर्निहित रहता है अतः सत्कार्यवाद सिद्ध है । कार्यरूप द्रव्य पर्याय की दृष्टि से कारण रूप द्रव्य से सदैव नूतन होता है, अतः सद्सत्कार्यवाद सिद्ध है। कहा भी गया है
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तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2006
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