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________________ । ६.७ मत्स्य (मीन) 'मद' धात से 'ऋतन्यजीति' सत्र से स्यन् (स्य) प्रत्यय करने पर मत्स्य शब्द निष्पन्न होता है। माद्यन्ति लोकाऽनेनेति। जिससे संसार प्रसन्न होता है। मत्स्य दृष्टिरमणीय होता है। जल की स्वच्छता उसका कार्य है। भगवान विष्णु का प्रथमावतार मत्स्य ही है। लोकमंगल के लिए भगवान ने मत्स्य का रूप धारण किया। शास्त्रों में निर्दिष्ट मांगलिक द्रव्यों में मत्स्य का स्थान है। जैन अष्टमंगल में मत्स्य है। आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर निर्दिष्ट अष्टमंगलों की सूची में मत्स्य का उल्लेख है। भारतीय कला विशेषतः वास्तुकला में मत्स्यांकन का प्रभूत उपयोग प्राप्त है। ६.८ दर्पण 'दृप संदीपने' धातु से 'णिच्' और नन्दिग्रपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः सूत्र से ल्यु प्रत्यय करने परदर्पण बनता है। दर्पयति सन्दीपयति इति दर्पणः अर्थात् जो संदीपित करता है, दिखा देता है, वह दर्पण है। मुकुट, आदर्श, आत्मादर्श आदि पर्याय शब्द हैं। जो पापरूप दर्प का विनाशक है। मंगलकारक है वह दर्पण है। राजवल्लभ के अनुसार यह आयु, लक्ष्मी, यश, शोभा, समृद्धि का कारक है। दर्पण देखकर यात्रारंभ मंगलदायक माना जाता है। शास्त्रों में मांगलिक द्रव्यों के साथ दर्पण का भी उल्लेख है। आगम ग्रंथों में अनेक स्थलों पर अष्टमांगलिक द्रव्यों में तथा स्वतन्त्र रूप से भी दर्पण का उल्लेख है। ___ इस प्रकार अष्टमांगलिक द्रव्यों में स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य दर्पण आदि का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत किया गया। इनके अतिरिक्त भी अन्य मांगलिक द्रव्य, ब्राह्मण, अग्नि, शंख, कमल, दूर्वा, अक्षत, दही आदि हैं, उनका भी यथासंभव वर्णन विवेचन किया जाना वांक्ष्य है। ७. अष्ट मंगल में आठ संख्या का महत्त्व अब प्रश्न होता है कि मांगलिक द्रव्य तो अनेक हैं, लेकिन अष्ट का ही ग्रहण क्यों किया गया। आठ की संख्या का क्या महत्त्व है? इस संदर्भ में अष्ट संख्या विचारणीय है। अष्ट शब्द की व्युत्पत्ति ___अशू व्याप्तौ' धातु से तुट एवं कन् प्रत्यय करने पर अष्ट शब्द निष्पन्न होता है। जो सर्वत्र परिव्याप्त होता है, वह अष्ट है। संसार में जितने भी अष्ट संख्या वाचक पदार्थ हैं वे तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524627
Book TitleTulsi Prajna 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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