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________________ - का निर्माण करता है। सिद्धायतन में विद्यमान जिनप्रतिमाओं के सामने अष्टमांगलिक द्रव्यों के साथ भद्रासन की रचना भी की गई थी। वहीं पर सूत्र ६५८ से ६६४ तक प्रत्येक में सुधर्मा सभा में भद्रासनों का वर्णन है। जिन पर ऋद्धि सम्पन्न देव, अग्रमहिषियों तथा अन्य प्रकार के देव बैठते हैं। जीवाजीवाभिगम सूत्र में त तोरण द्वारों पर अष्टमंगलों के साथ भद्रासन को अंकित बताया गया है। विजयद्वार के अन्तर्गत अनेक भद्रासनों का उल्लेख है। एक सील पर एक श्रेष्ठ भवन (प्रासादावतंक) का वर्णन है। जिसमें अनेक सिंहासनादि सुशोभित हैं। उनके साथ परिवाराभूत भद्रासन भी बने हैं। वहीं अष्टमंगलों के होने का भी उल्लेख है। भद्रासन के साथ मांगलिक ध्वजों का भी होना बताया गया है- भद्दासणाई उवरिं मंगला झयां।" जीवाभिगम सूत्र में अन्यत्र भी सिद्धासनों का वर्णन है। अन्य जैन ग्रंथों में अनेक स्थलों पर भद्रासन का वर्णन है। जैनेतर शास्त्रों में भी भद्रासन का स्वरूप निरूपित है। ६.६ कलश कलश शब्द कलश और कलस दोनों रूपों में मिलता है। कल उपपदपूर्वक शु गतौ धातु से प्रत्यय करने पर कलश शब्द बनता है। कलं मधुराव्यक्तशब्दं शवति जलपूरणसमये प्राप्नोति इत्यर्थ 'अच्'। घट, कुट, निप, कलस, कुम्भ, करीर आदि पर्याय है। कलश शब्द क उपपद पूर्वक लसदीप्तौ धातु से अच् प्रत्यय करने पर भी निष्पन्न होता है। केन जलेन लसति शोभते अर्थात् जो जल से सुशोभित होता है वह कलस है। कालिका पुराण में कलस का सुन्दर निवर्चन प्राप्त है०० कलाः कलास्तु देवानामसितास्ताः पृथक् पृथक् । यतः कृतास्तु कलसास्ततस्ते परिकीर्तिताः॥ सर्वप्रथम सागर मंथन के समय चौदह-रत्नों के साथ अमृत-कलश की उत्पत्ति हुई। उसमें भरे हुए अमृत को थोड़ा-थोड़ा एंव पृथक्-पृथक् देवों ने पान किया, इसलिए उसका नाम कलश पड़ा। वहीं पर नव भेदों का उल्लेख भी है-गोह्य, उपगोह्य, मरुत, मयूख, मनोहा, ऋषिभद्र, तनुशोधक और विजय । क्षितीन्द्र, जलसंभव, पवनोद्भूत, अग्निकलस, यजमान, कोषसंभव, सोम, आदित्य और विजय- ये अन्य आठ नाम भी मिलते हैं। पंचमुखी कलस का उल्लेख है। साहित्यक परम्परा में कलश या पूर्णघट का उल्लेख सर्वप्रथम विश्व के आद्य ग्रन्थ ऋग्वेद में प्राप्त होता है। वहां पर पूर्ण कलश2 कुंभ,63 और भद्रकलश आदि रूप में तुलसी प्रज्ञा अप्रेल- जून, 2006 - - 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524627
Book TitleTulsi Prajna 2006 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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