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________________ केवल कर्मशास्त्रीय मीमांसा ही नहीं करता अपितु मन के विविध कोणों को सूक्ष्मता से व्याख्यायित कर मानसिक ग्रन्थिविमोचन का मार्ग प्रशस्त करता है। मंजिल की किसी एक दिशा को जान लो, रास्ता स्वयं मंजिल तक ले जाएगा। 'जे एगं जाणाइ से सव्वं जाणाइ 142 आत्मा और मोक्ष की बात करने वाला जैन-धर्म जन्म और मृत्यु के बीच यात्रा का सम्पूर्ण पाथेय मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करता है । यह दमन नहीं, शमन की प्रक्रिया बताता है । दमित इच्छाओं की नींव पर भी तनावमुक्त, शुद्ध जीवन का महल खड़ा नहीं होता, अत: जैनधर्म कारणों की खोज करके निरापद रास्ते का विधान करता है । सम्पूर्ण जैन धर्म-दर्शन का वाङ् मय मनोविज्ञान के सन्दर्भ में पढ़ा जा सकता है। आवश्यकता मात्र धैर्य, विश्वास, सूक्ष्ममेधा और शोधात्मक पृष्ठभूमि के निर्माण की है, अतः हम इस दिशा में आगे बढ़ते रहें । सन्दर्भ : 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. वही 2/41 सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं मनः 11. वही 2/36 12. 13. 14. 15. 16. 17. आचारांग 1-1-1-3 18. 19. आचारांग 1-3-2 20. आचारांग 1/2/4 उत्तरज्झयणाणि 28/10,11 भगवती, 718 ठाणं, 2 जैन सिद्धान्त दीपिका, 4/7 प्रज्ञापना, पद 13 आचारांग 1/5/5 प्रज्ञापना, पद 17 तत्त्वार्थ सूत्र 20 जैन सिद्धान्त दीपिका 2/34- प्रतिनियम - विषयग्राहिइन्द्रियम् Some problems in Jaina psychology- By T.G. Kalghatgi जैन सिद्धान्त दीपिका, 2/8 वही 2/23 तत्त्वार्थ सूत्र प्रमाण मीमांसा 1.2.24 आचारांग 1-1-1-4-5 तुलसी प्रज्ञा अप्रेल - जून, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 65 www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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