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________________ स्वास्थ्य का बहुत महत्त्व है। उससे भी ज्यादा महत्त्व है स्वास्थ्य चेतना का । यदि स्वास्थ्य की चेतना जागृत है तो निश्चित ही आप जाने-अनजाने अध्यात्मिक हैं | अध्यात्म चिकित्सा - स्वास्थ्य चेतना का अगला चरण है। अस्वस्थ मनुष्य चिकित्सा कराता है- एलोपैथिक चिकित्सा में विश्वास करने वाला डॉक्टर की दवा लेता है। • आयुवैदिक चिकित्सा में विश्वास करने वाला वैद्य की दवाई लेता है । • होमियोपैथिक चिकित्सा में विश्वास करने वाला होमियोपैथी दवा लेता है । • यूनानी चिकित्सा में विश्वास करने वाला हकीम की दवा लेता है । दवा लेने वाले रोगी को दवा लेने से रोका नहीं जा सकता, किन्तु दवा लेने के साथसाथ अध्यात्म-चिकित्सा अथवा भाव-चिकित्सा का मार्ग सुझाया जा सकता है। दवा के साथ इसका प्रयोग करने से स्वास्थ्य में शीघ्र सुधार होता है और स्थायी सुधार होता है। बाह्य रोगों की चिकित्सा बाह्य साधनों द्वारा की जा सकती है। आध्यात्मिक रोगों की चिकित्सा बाह्य साधनों से नहीं की जा सकती, क्योंकि इन रोगों के परमाणु इतने प्रबल होते हैं कि वे बाह्य औषधियों को स्वीकार नहीं करते। उनकी चिकित्सा आभ्यन्तर उपाय साध्य है। जैसे अनाथी मुनि की वेदना उनके ही संकल्प से ठीक हुई । कर्मज बीमारी की चिकित्सा विश्वास द्वारा की जा सकती है। संकल्प और भावशुद्धि के द्वारा की जा सकती है । भावशुद्धि और मानसिक शुद्धि भी रोग निवारण में सहायक बनती है। आभ्यन्तर कारण से रोग पैदा हुआ तो चिकित्सा ध्यान, आसन, प्राणायाम आदि से की जा सकती है। आयुर्वेद के अनुसार रसायन सबसे बड़ी औषधि है । रसायन जरा और व्याधि को नष्ट करने वाला होता है। लेकिन इस रसायन से भी आचार रूपी रसायन मुख्य रसायन है । I भावना से भी चिकित्सा की जाती है । औषध प्रयोग के साथ-साथ भावना का प्रयोग भी कार्यकारी होता है। औषधि के साथ मैत्री की भावना, अनुकंपा की भावना का प्रयोग किया तो औषधि की शक्ति वृद्धिंगत हो सकती है। यदि बीमारी क्रूरता के कारण उत्पन्न हुई है तो क्रूरता की वृत्ति का परिष्कार कर सबके साथ मैत्री की भावना को पुष्ट किया जाए, बीमारी ष्ट हो जाती है। यदि रोगी में मैत्री, प्रमोद, करुणा की भावना पैदा की जा सके, उसके मन की निर्मलता व प्रसन्नता को बढ़ाया जा सके, क्रोध, मान, माया, घृणा, ईर्ष्या आदि भावनाओं का परिष्कार किया जाए तो व्यक्ति पूर्णतः स्वस्थ हो सकता है। शरीर शास्त्र में मस्तिष्क का गहरा अध्ययन हुआ है । उसमें अल्फा और थेटा- इन तरंगों का अध्ययन हुआ है। अल्फा से मस्तिष्क का तनाव कम होता है, इसका तात्पर्य है कि ग्रन्थियों का स्राव संतुलित होता है जिससे मनुष्य स्वस्थ होता है । 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 128 www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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