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हुई ये ध्वनितरंगें भाषावर्गणा के पुद्गलों के माध्यम से नीचीतरंगन्यास से लोकान्त तक पहुंचती है। यह ध्वनि श्रोत्रेन्द्रिय प्राप्यकारी है। इसीलिए समीप की ध्वनि शीघ्र सुनाई देती है। शब्द की गति, परमाणुओं की सूक्ष्मता, बोलने वाले के प्रयास व माध्यमकणों के सम्बन्ध पर निर्भर होती है।
शब्द पुद्गल की पर्याय है और रूप, रस, गन्ध व वर्ण पुद्गल की ही असाधारण विशेषता है। ये सभी विशेषताएं सूक्ष्म रूप में शब्दों में भी होती हैं। शब्द की अनेक विशेषताओं संघर्षण, प्रतिघात, नष्ट होने का स्वभाव, मन्दता, तीव्रता, मृदुता, परुषता, प्रबलता, संख्यात्मकता, गति, गतिध्वनि आदि का वर्णन मिलता है।
जैन दार्शनिकों ने इसकी पौद्गालिकता की सिद्धि अनेक तर्कों से की है। यह भौतिक इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य है। दीवार से टकराता है। कांच आदि के प्रतिबन्धक कारणों से रुकता है। तीव्र आवाज से बधिर होने का खतरा रहता है। आज भौतिकी और आधुनिक उपकरणों ने शब्दों की पौद्गलिकता को सर्वजनसामान्य के लिए ग्राह्य बना दिया है।
अन्य भारतीय दर्शनों ने भी शब्द का विचार किया है। वहां शब्द द्रव्य है या गुण, यह विवाद का विषय रहा है। सांख्य के अनुसार त्रिगुणात्मक अहंकार से शब्द की उत्पत्ति होती है। शब्दतन्मात्रा से आकाश उत्पन्न होता है। इस प्रकार सांख्यों के मत में शब्द द्रव्य है। सांख्यों ने दो ही तत्त्व माने हैं- प्रकृति और सुख। शब्द प्रकृति का विकार है। जैनों के अनुसार द्रव्य छह हैं। अचेतन द्रव्य पांच प्रकार का है। मूलत: अचेतन दो प्रकार का है- एक मूर्त या भौतिक, दूसरा अमूर्त या अभौतिक। आकार धर्म, अधर्म (और काल भी) के समान अचेतन किन्तु अमूर्त व निष्क्रिय है, जो स्वतंत्र द्रव्य है। सांख्यों का आकार शब्दतन्मात्रा (सूक्ष्म ऊर्जा) से उत्पन्न है। इसलिए जन्यपदार्थ या विकार या धातु है। दोनों के आकाश के स्वरूप में अन्तर है।
. वैयाकरणों ने शब्द को वायु का परिणाम माना है। वाक्यपदार्थ के अनुसार वक्ता की इच्छा के अनुसार प्रयत्न होता है, जिससे वायु क्रियाशील होकर उच्चारण-स्थानों से टकराकर शब्दरूप को प्राप्त करती है। भर्तृहरि ने जैनाचार्यों का नाम लिए बिना उनका मत भी उपस्थित किया है। स्पष्ट है वायु शब्द का माध्यम है, कारण नहीं।
__ न्याय वैशेषिक शब्द को द्रव्य या द्रव्य की पर्याय न मानकर गुण मानते हैं । उनके मत से शब्द आकाश का गुण है। रूपादि गुण चक्षुरादि इन्द्रियों से ग्राह्य हैं, उसी प्रकाश श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य होने से शब्द भी गुण है । यद्यपि नैयायिकों में पार्थसारथिमिश्र ने कहा कि यदि शब्द को गुण ही मानना हो, तो वह वायु का गुण हो सकता है, आकाश का नहीं। सत्यपि गुणत्वे वायुगुणत्वात्।' इतर नैयायिकों के मत से स्पर्शत्व न होने से यह वायु का गुण नहीं हो सकता, आकाश का गुण होना ही उचित है।
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून , 2005
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