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जैन ध्वनि सिद्धान्त पदार्थ विज्ञान
डॉ. कुसुम पटोरिया
जैन वाङ्मय में ध्वनि का विस्तार से विवेचन है। भगवती, प्रज्ञापना आदि आगमों के अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द, पूज्यपाद अकलंक, हरिभद्र, प्रभाचन्द्र, मल्लिषेण आदि सूरियों के नाम इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं।
सारे दृश्य जगत का विस्तार पुद्गल द्रव्य से है। पुद्गल जैनों का विशिष्ट व अर्थपूर्ण पारिभाषिक शब्द है। पुद् का अर्थ है संयोग तथा गल का अर्थ है विभाग अर्थात् फ्यूजन और फिरान। पुद्गल चयाचय को प्राप्त होने वाला भौतिक द्रव्य है। संयोग और विभाग भौतिक द्रव्य की ही विलक्षण विशेषता है, अतः पदार्थ का पुद्गल नाम विशेष सार्थक है।
शब्द पुद्गल की शब्द, बंध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तमः, छाया, आतप व उद्योत आदि पर्यायों में से एक है।' पुद्गल की तेईस वर्गणाओं में एक भाषावर्गणा है । वर्गणा का अर्थ तरंग और उनका कम्पन है। भाषावर्गणा के सूक्ष्म स्कन्ध में ही ध्वनि-रूप में परिवर्तित होने की योग्यता होती है। एक अन्य वर्गीकरण के अनुसार शब्द सूक्ष्म-बादर भेद में अन्तर्गत होते हैं, क्योंकि ये चक्षुग्राह्य नहीं है।
पदार्थ में कम्पन से ध्वनि उत्पन्न होती है। स्कन्धों के संघर्षण व टूटने से ध्वनि उत्पन्न होती है। एक परमाणु ध्वनि उत्पन्न नहीं करता। यह उत्पन्न ध्वनि माध्यम में तरंगित होती है । बोलने की इच्छा होते ही मन, वचन व काय सक्रिय हो जाते हैं। सक्रिय होने पर वक्ता का स्वरयंत्र भाषावर्गणा के परमाणुओं को अर्थात् ध्वनि रूप में परिवर्तित होने योग्य पुद्गलों को छओं दिशाओं से ग्रहण करता है। ये ध्वनि रूप परिवर्तित होने योग्य पुद्गल-पर्याय द्रव्यभाषा है। व्यक्ति गृहीत पुद्गलों को ध्वनि रूप में उत्सर्जित करता है। ध्वनिरूप में निःसृत पुद्गल सूक्ष्म स्कन्ध अपने समीपस्थ स्कन्धों को शब्दायमान करते हैं। इस प्रकार क्रमशः उत्पन्न होती
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तुलसी प्रज्ञा अंक 128
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