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________________ 4. योग दर्शन का ईश्वर मात्र एक पुरुष है, जो क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से रहित पुरुष विशेष है। क्लेशकर्मविपाकाशयेरपरंपरामृष्टः पुरुषविशेषईश्वर: " 5. जैन दर्शन में जो परमात्मा की अवधारणा है, वह योग की अवधारणा के समान ही है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि योग दर्शन में पुरुष विशेष को ईश्वर माना गया है तो जैन दर्शन ने ऐसी शुद्ध- बुद्ध-निर्विकार प्रत्येक आत्मा को ही परमात्मा माना है यानि परमात्मा एक नहीं, अनेक हैं। आत्माएं शुद्ध-बुद्ध - निर्विकार दशा को प्राप्त कर परमात्मा बन सकती है । हरिभद्र की ईश्वर संबंधी अवधाणा इसी रूप में है । न्याय और वैशेषिक जगत के सृष्टि, पालन और संहार से इतर ईश्वर की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए हरिभद्र कहते हैं कि यदि ईश्वर को इन कार्य व्यापार में लगा हुआ माना गया तो उसमें राग - द्वेष आदि की उपस्थिति माननी होगी । किन्तु राग-द्वेष के कारण ईश्वर की महानता कलंकित हो जाएगी और वह एक-एक सांसारिक व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं होगा। इसलिए आचार्य ने उसे वीतराग वीततृष्णा कहा है। उनके अनुसार जैन सांख्य और योग दर्शन में भी ईश्वर को वीतराग माना गया है। अतः वह जगतकर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि कर्त्तव्य साक्षात हो या दूसरे की प्रेरणा से, प्रयोजन की इच्छा होने पर ही संभव होता है अर्थात् जिसे किसी फल की इच्छा होती है वही साक्षात या पर की प्रेरणा के द्वारा कर्त्ता होता है। वीतराग ईश्वर में फलेच्छा रूप व्यापक धर्म नहीं है, इसलिए उसका व्याप्य होने से साक्षात् या पर प्रेरणामूलक कर्तृत्व भी उसमें नहीं हो सकता । अन्ये त्वभिदधत्यत्र वीतरागस्य भावतः । अत्थं प्रयोजनाऽभावात् कर्तृत्वं युज्यते कथम् ? ॥ ईश्वरकर्तृत्व का खंडन करते हुए पुनः लिखते हैं कि ईश्वर कुछ जीवों को ब्रह्महत्या आदि ऐसे कार्यों में प्रवृत्त करता है जिससे कर्त्ता को नरक की प्राप्ति होती है और जीवों को यम-नियमादि कर्मों में प्रवृत्त करता है, जिससे कर्त्ता को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। प्रश्न है कि ईश्वर जीवों को विभिन्न कर्मों में क्यों प्रवृत्त करता है? नरकादिफले कांश्चित्कांश्चित्स्वर्गादिसाधने । कर्मणि प्रेरयत्याशु स जन्तून् केन हेतुना ॥ बुद्धिकर्तृत्व में भी ईश्वरकर्तृत्व निर्रथक बताते हुए हरिभद्र आगे कहते हैं कि ईश्वर किसी प्रकार के सुख पाने की इच्छा से जीवों को यह संसार रूपी खेल खेलने के लिए प्रेरित करता है तो वह अवश्य सुख के प्रति रागवान होगा और मनोविनोद के लिए तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 57 www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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