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ईश्वरवाद की अवधारणा के प्रति मनोवैज्ञानिक कारणों की भी जाँच -परख करते हैं, वहीं अन्य परंपराएं ईश्वरवाद और विशेष रूप से ईश्वरकर्तृत्ववाद का खंडन करने का दृष्टिकोण अपनाती है। मनोवैज्ञानिक तौर पर हरिभद्र की स्पष्ट अवधारणा है कि मनुष्य में अपनी अपेक्षा शक्ति एवं सद्गुण में विशेष समुन्नत किसी महापुरुष के प्रति भक्ति होने का, उसकी शरण में जाने का भाव स्वाभाविक रूप से होता है। इसी भाव से प्रेरित होकर वह किसी आदर्श व्यक्ति की कल्पना करता है। उसकी यह मनोवैज्ञानिक आकांक्षा स्वतंत्र सर्वगुण सम्पन्न जगत के कर्ता, धर्ता ईश्वर की कल्पना करता है। मनुष्य उसे ही अपना आदर्श और नियन्ता मानकर जीवन व्यतीत करता है। हरिभद्र कहते हैं कि मानस की यह भक्ति या शरणागति की तीव्र उत्कंठा सचमुच कोई बुरी वस्तु तो नहीं हैं। उन्होंने इस तरह से ईश्वरकर्तृत्ववाद का तात्पर्य स्पष्ट किया है ताकि ऐसी उत्कंठा को कोई ठेस भी न लगे और उसका तर्क एवं बुद्धिवाद के साथ कोई विरोध भी न हो। उन्होंने कहा है कि जो पुरुष अपने आध्यात्मिक विकास की उच्चतम भूमिका पर पहुंचा हो, वही ईश्वर है। जीवन जीने में आदर्श रूप होने से वही निर्माता, भक्ति का पात्र एवं उपास्य भी होता है। हरिभद्र का विचार है कि लोग जिन शास्त्रों एवं विधि निषेधों के प्रति आदर भाव रखते हैं वे शास्त्र और वे विधि, निषेध आदि ईश्वर प्राप्ति प्रणीत हों तो वे सन्तुष्ट हो सकते हैं और वैसी वृत्ति भी मिथ्या नहीं है। अत: अपने प्रयत्न से आत्मविशुद्धि के शिखर पर पहुंचे हुए व्यक्ति को आदर्श मानकर उसके उपदेशों के प्रति श्रद्धा की भावना रखनी चाहिए।
__ शास्त्रवार्तासमुच्चय में ईश्वरवाद की प्रस्तुति और हरिभद्र के मत से उनकी समीक्षा से पूर्व यह देखना आवश्यक है कि ईश्वर के संबंध में उपलब्ध दार्शनिक परंपराओं में क्या मत व्यक्त किए गये हैं।
__ 1. वेदान्त दर्शन में ईश्वर से ही सृष्टि और उसी में ही सष्टि का विलय होने से उसे जगत का उपादान कारण कहा गया है। रामानुज के अनुसार एक ही ईश्वर जड़ और चेतन दोनों रूपों में अभिव्यक्त होता है ।
2. न्याय दृष्टि में ईश्वर को सृष्टि का उपादान कारण नहीं, अपितु निमित्त कारण माना गया है। ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति कुंभकार की भांति नित्य परमाणुओं से करता है। अतः ईश्वर स्रष्टा है।
___3. सांख्य दर्शन पुरुष के सान्निध्य से प्रकृत्ति द्वारा सृष्टि का विकास मानता है। इसी कारण पुरुष को कुछ सांख्य ने ईश्वर कहा है। वस्तुत: सांख्य का पुरुष जगत का द्रष्टा एवं भोक्ता है, कर्ता नहीं।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 127
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