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________________ होते हैं । सत्त्व गुण संतोष, रजोगुण निराशा, दुःख तथा तमोगुण भ्रम का जनक है। सत्त्व गुण में स्थित मृत्यु को प्राप्त प्राणी उच्च लोक में जाता है। राजस पुरुष मध्य तथा तामस पुरुष अधम गुणों में स्थित होकर अधोगति में जाते हैं। ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥5 जैनदर्शन एवं सांख्य दर्शन सांख्य दर्शन में प्राणी की मानसिक, बौद्धिक अवस्थाओं का वर्णन तथा मृत्यु के पश्चात् कहाँ उत्पन्न होंगे इत्यादि बातों का विचार सत्त्व आदि गुणों के आधार पर किया है। जैन दर्शन में प्राणी की इन अवस्थाओं पर विमर्श कर्म के उदय, क्षयोपशम, आर्त, रौद्र आदि ध्यान तथा लेश्या आदि के द्वारा किया है किन्तु यहाँ विशेष विमर्शनीय तथ्य यह है कि गुण प्रकृति के घटक हैं। प्रकृति जड़ है, चेतन पुरुष का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है जबकि जैन परम्परा में कर्म, ध्यान, लेश्या आदि का जीव के साथ सम्बन्ध है। जीव अपने क्रियाकलापों से ही इनका सर्जक बनता है। सांख्य के यहाँ पुरुष मात्र द्रष्टा है किन्तु जैन के अनुसार पुरुष ही कर्ता है। केवल जड़ पदार्थ इन अवस्थाओं का कर्त्ता नहीं बन सकता। अतः सांख्य एवं जैन विचारणा की आधारभूमि अत्यन्त पृथक् है। गीता में त्रिगुण गीता में श्रद्धा, तप, दान, यज्ञ, कर्म आदि को सात्त्विक, राजस एवं तामस के भेद से तीन-तीन प्रकार का कहा है। उनकी पृथक्-पृथक् पहचान भी वहाँ पर निर्दिष्ट है। उदाहरणतः फलाशंसा से मुक्त योगी पुरुष द्वारा परम श्रद्धा से आचरित, शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक तप को सात्त्विक कहा गया है। सत्कार, मान, पूजा आदि के पाखण्ड से किया जाने वाला राजस तप है। शारीरिक कष्ट झेलकर मूर्खतापूर्वक हट से अथवा दूसरों का अनिष्ट करने के लिए किया जाने वाला तप तामसिक तप कहलाता है। __ आसक्ति रहित, अहंकार युक्त शब्द न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्तसिद्धि और असिद्धि में जो निर्विकार रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहा जाता है। आसक्तियुक्त, कर्मफल की इच्छा करने वाला, लोभी, हिंसक, अपवित्र, हर्ष एवं शोक से जो युक्त होता है, वह राजसकर्ता है तथा अयोग्य, नीच प्रकृति वाला, घमण्डी, धूर्त, मायावी, आलसी, विषादी, प्रत्येक कार्य को देर से करने वाला तामसी कर्ता कहा जाता है।" तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 - - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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