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सृष्टि का आधारभूत तत्त्व
सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष चेतन, त्रिगुणातीत एवं अपरिणामी है। प्रकृति जड़, त्रिगुणात्मिका एवं परिणामी है। सृष्टि का सारा विस्तार प्रकृति के कारण ही है। प्रकृति से ही सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति होती है । सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है । सृष्टि की आदि और विलय के अन्त में केवल एक प्रकृति ही शेष रहती है । सांख्य के सिद्धान्तानुसार सृष्टि के कार्य में पुरुष का किंचित् मात्र भी हस्तक्षेप नहीं होता है । पुरुष के सान्निध्य से जड़ प्रकृति ही सृष्टि का निर्माण करती है। पुरुष के सान्निध्य से प्रकृति के गुणों में क्षोभ उत्पन्न होता है और सृष्टि उत्पन्न हो जाती है । गुणक्षोभ सृष्टि का कारण है।
सांख्य सम्मत तत्त्वों का विकास क्रम
चेतन पुरुष के संयोग से जड़ात्मिका प्रकृति में जो प्रथम विकार उत्पन्न होता है, उसे महत् तत्त्व कहते हैं । महत् का ही दूसरा नाम बुद्धि है । महत्तत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है। गुणों के वैशिष्ट्य से अहंकार भी तीन प्रकार का हो जाता है - सात्विक, राजस एवं तामस । सात्विक अहंकार से मन, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं पांच कर्मेन्द्रियाँ – ये ग्यारह तत्त्व पैदा होते हैं एवं तामस अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं । पाँच तन्मात्राओं से पाँच भूत उत्पन्न होते हैं तथ पंच भूतों से सारा संसार उत्पन्न होता है ।
यहाँ एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब सात्विक एवं तामस अहंकार से ही सभी कार्य उत्पन्न हो जाते हैं तब राजस अहंकार को स्वीकार करने की क्या आवश्यकता है ? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा गया कि यद्यपि राजस अहंकार का कोई स्वतन्त्र कार्य नहीं है, फिर भी उसे मानना आवश्यक है, क्योंकि सत्वगुण एवं तमोगुण समर्थ होने पर भी क्रियाशील नहीं है, अतः स्वयं अपने कार्यों में प्रवृत्त नहीं हो सकते हैं । रजोगुण उनको अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त करता है, अतः सत्त्वगुण और तमोगुण में क्रिया उत्पन्न करने के कारण राजस अहंकार का महत्व स्वतः सिद्ध है । इसलिए ही राजस अहंकार से ग्यारह इन्द्रियाँ एवं पांच तन्मात्रा- -दोनों की उत्पत्ति मानी जाती है । " सांख्य के सृष्टि-क्रम को निम्नलिखित तालिका से समझा जा सकता है
1. पुरुष (उदासीन)
2. प्रकृति ( त्रिगुण की साम्यावस्था)
3. महत् (बुद्धि) (त्रिगुणात्मक)
4. अहंकार (त्रिगुणात्मक)
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च,
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