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________________ कहने से जो स्वयं प्रकाश देता हो, दूसरों को प्रकाशित करता हो, दूसरों को तपाता हो तथा अपने उत्पत्तिस्थान से दूर जा कर गिरे और दूसरों को जलाए फिर भी स्वयं निर्जीव हो ऐसे पदार्थ के रूप में तेजोलेश्या का उल्लेख किया गया। किन्तु बिजली इत्यादि किसी दूसरे पदार्थ का उल्लेख नहीं किया गया। यदि बिजली इत्यादि पदार्थ कभी निर्जीव होने की संभावना होती तो भगवतीसूत्र में सर्वज्ञ भगवंत ने उसका निर्देश अवश्य किया होता । परंतु बिजली इत्यादि का वैसे निर्जीव पुद्गल रूप में उल्लेख नहीं किया, यह बात उल्लेखनीय है । और एक बात, तेजोलेश्या निर्जीव होते हुए भी तेजोलेश्या के पुद्गलों को एकत्रित करके छोड़ने वाला तो जीव ही है । परन्तु बल्ब में न तो तेजोलेश्या होती है और न ही तेजालेश्या को छोड़ने वाला जीव कि जिनके प्रभाव से वहाँ निर्जीव प्रकाश - गरमी इत्यादि उत्पन्न हो सके। प्रस्तुत में जीव के सहकार के बिना तो बल्ब में प्रकाश अथवा गरमी इत्यादि कैसे पैदा हो सकते हैं ? क्योंकि 'सभी उष्ण परिणाम जीव के प्रयत्न से ही उत्पन्न होते है' ऐसा अभी हमने (पृष्ठ-५९) आचारांग व्याख्या के अनुसार देखा है। बल्ब में तो जुगनू इत्यादि की भाँति अथवा नरक में पृथ्वीकाय वगैरह की भाँति किसी जीव से सहयोग प्राप्त होने की कोई संभावना तो है ही नहीं । सूर्य के विमान में रहते हुए पृथ्वीकाय जीव की तरह आतपनामकर्म का उदय अथवा रत्न, मणि, चंद्र के विमान या जुगनू इत्यादि की तरह उद्योत - नामकर्म का उदय किसी बल्ब में नहीं होता। इसलिए सूर्यप्रकाश, चंद्रप्रकाश, जुगनू का प्रकाश इत्यादि की तरह बल्ब के प्रकाश को निर्जीव नहीं माना जा सकता । आतपनामकर्म, उद्योतनामकर्म, तेजोलेश्या अथवा उष्णस्पर्शनामकर्म के उदय के बिना अन्य किसी प्रकार से तो गरमी - प्रकाश इत्यादि की उत्पत्ति संभव नहीं है । बल्ब में सिर्फ विस्नसापरिणामजन्य गरमी, प्रकाश इत्यादि को मान नहीं सकते। (प्रस्तुत में आगमविद् प्राज्ञ पुरुषों को एक बात ज़रूर नोट करने योग्य है कि आकाशीय बिजली भी मात्र विस्त्रसापरिणामजन्य नहीं है, क्योंकि वह पन्नवणा, भगवतीसूत्र इत्यादि मूल आगम के अनुसार तेउकाय जीवस्वरूप होने से बिजली की उत्पत्ति में जीव का प्रयत्न भी सम्मीलित ही है । भगवती सूत्र आठवें शतक के प्रथम उद्देश में मिश्रपरिणाम युक्त (वेस्नसिक प्रायोगिक) जो द्रव्य बताए गए हैं उनमें ही आकाशीय बिजली इत्यादि को सम्मिलित करना उचित है) अन्यथा तो वह मनुष्य के प्रयत्न के बिना परमाणु गति की तरह कभी भी अथवा बादल की तरह निश्चित समय पर बल्ब में अपने आप उत्पन्न हो जाएँगे और चले जाएँगे ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा। किन्तु वास्तविकता यह नहीं है । इसलिए पारिशेषन्याय से उष्णस्पर्श नामकर्म के उदय वाले बादर अग्निकाय जीवों का ही वहाँ स्वीकार करना रहा, क्योंकि 'उष्ण-स्पर्शादिनामकर्मोदयाद् दीप्यते' इस प्रकार बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति (भाग-३, गा. २१४६ वृत्ति) के वचन अनुसार उष्णस्पर्शादि नामकर्म के उदय से अग्नि प्रकाशित होती है यह बात शास्त्र सिद्ध है। 43 ' उत्तर:-हम इस लेख के प्रथम भाग के दूसरे प्रभाग में "जीव और पुद्गल का तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only 57 www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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