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________________ मतलब कि 'परमाधार्मिक द्वारा विकुर्वित अग्नितुल्य वस्तु का स्पर्श हो तो अग्निकाय का ही स्पर्श किया-ऐसा नारकी को लगता है अथवा किसी पूर्वभव में अनुभव किए हुए अग्निकाय के पर्याय वाले पृथ्वीकाय इत्यादि जीवों का उष्ण स्पर्श नरक में होता है' भगवतीसूत्र की व्याख्या में श्री अभयदेवसूरिजी महाराज के उपर्युक्त शब्द द्वारा फलित होता है कि नरक में नारकी जीवों को जो गरमी का अनुभव होता है उसमें परमाधामी देवों का प्रयत्न काम करता है अथवा पृथ्वीकाय जीव का ही वह उष्ण स्पर्श है। यहाँ नोंधपात्र बाबत यह है कि भगवतीसूत्र की व्याख्या में 'पृथिवीपुद्गलादिस्पर्शापेक्षया....' ऐसा कहने के बदले 'पृथिवीकायिकादिस्पर्शापेक्षया.....' ऐसा कहा गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि निर्जीव पृथ्वी के पुद्गलों का उष्ण स्पर्श नहीं बल्कि सजीव पृथ्वीकाय इत्यादि जीवों का उष्ण स्पर्श नरक में होता है। इस प्रकार 'नरक में अनुभव में आने वाले उष्ण स्पर्श का आश्रय जीव ही है और जीव के प्रयोग से ही यह उष्ण स्पर्श उत्पन्न होता है' ऐसा सिद्ध होता है। इस उष्ण स्पर्श का आश्रय जीव हो तभी तो 'भवान्तरानुभूततेजस्कायिकपर्याय' ऐसा विशेषण पृथ्वीकाय को लगाया जा सकता है। नरक की गरमी का वर्णन करने के प्रसंग में वादीवेताल शांतिसूरिजी महाराज ने उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति में 'अग्नौ देवमायाकृते' (१५,४८) ऐसा कह कर 'नरक में जो उष्ण स्पर्श अनुभव में आता है वह देवमायाकृत होता है'- यह बता कर वहाँ कृत्रिम उष्ण स्पर्श परमाधामी देव के प्रयत्न को आभारी है'- ऐसा सूचित किया है तथा वही आगे 'तत्रोष्णः पृथिव्यनुभाव' (१९,५०) यह कह कर नरक में जो स्वाभाविक गरमी होती है वह पृथ्वीकाय जीवों का उष्ण स्पर्श है-ऐसा बताया है। पनवणासूत्र की व्याख्या में श्रीमलयगिरिसूरिजी महाराज भी 'नरकावासेषु उष्णस्पर्शपरिणामानि उपपातक्षेत्राणि' (पद-९ सू.-१५० पृष्ठ-२२५) यह कह कर 'नरक की गरमी वहाँ के क्षेत्र का परिणाम है'- ऐसा सूचित किया है। इससे सिद्ध होता है कि नरक की स्वाभाविक उष्णता पृथ्वीकाय जीवों का गुणधर्म है। भगवती सूत्र के १०वें शतक के दूसरे उद्देशक की टीका में श्रीअभयदेवसूरिजी महाराज ने भी कहा है कि 'नारकाणां यदुपपातक्षेत्रं तदुष्णस्पर्शपरिणतम्' (पृ.-४९६) अर्थात् नरक में उपपात क्षेत्र की उष्णता होती है। इस प्रकार पृथ्वीकाय जीव का ही वह उष्ण परिणाम साबित होता है किन्तु जीव के सहयोग बिना तो वहाँ उष्ण स्पर्श-दाह इत्यादि नहीं हो सकता। यह बात बिल्कुल निश्चित ही है। ___ यहाँ एक और बात करनी आवश्यक है कि भगवतीसूत्र में कयरे णं भंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति उज्जोवेति तवेंति पभासेंति? कालोदाई! कुद्धस्स अनगारस्स तेयलेस्सा निसट्ठा समाणी दूरं गंता दूरं निपतइ, देसं गंता देसं निपतइ, जहिं जहिं च णं सा निपतइ तहिं तहिं च णं ते अचित्तादि पोग्गला ओभासंति जाव पभासंति' (भगवती १/१०/३८०) ऐसा 56 - तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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