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________________ जोत सकेंगी। ठीक उसी प्रकार जैसे 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में यूरोप और अमेरिका ने अफ्रीकी और एशियाई मजदूरों को गुलाम बनाकर खरीदा था। लगभग 31 प्रतिशत जो मध्यम वर्ग के होंगे, दसवीं या बारहवीं तक पढ़कर वैश्वीकृत बाजार में तकनीशियन बनेंगे और देश के मात्र 6 प्रतिशत बच्चे शिक्षा प्राप्त करेंगे। वे ही नयी प्रौद्योगिक का सृजन करेंगे और वैश्वीकृत बाजार में इस इंसानी पूंजी की कीमत बढ़-चढ़कर लगाई जाएगी। अंततः वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था पर विश्व-पूंजी की मालिक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का वर्चस्व बरकरार रखने में यह शिक्षा-व्यवस्था मददगार होगी। तो यह है अम्बानी-बिड़ला द्वारा प्रस्तावित शिक्षाव्यवस्था में छिपे वैश्वीकरण, नव ब्राह्मणवाद और नवमैकालेवाद का स्वरूप और यही है इसका लब्बोलुआब।' (अनिल सद्गोपाल, राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली 10 फरवरी 2001.) __26 नवम्बर 1949 ई. को भारतीय संविधान निर्माताओं ने भविष्य के 'खुशनुमा भारत' के स्वरूप को गढ़ने के लिए गैर बराबरी के किसी भी मानवताविरोधी सिद्धान्त को खारिज करते हुए जो महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए थे, आजादी के छप्पन साल बाद उस पर निगाह डालना जरूरी है, क्योंकि उसी के आलोक में निरन्तर परिवर्तित होते हुए सत्ता के नियामक तंत्र को गहरायी से समझा जा सकता है। उस शपथ पत्र में गौरवपूर्ण घोषणा की गयी थी कि 'हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण, प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज 26 नवम्बर 1949 ई. को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।' जाहिर है भारत सामंतवादी-साम्राज्यवादी दुरभिसंधियों से मुक्त होकर एक बेहतर विकास की ओर बढ़ने के लिए संकल्प ले रहा था। चार दशक तक नियोजित अर्थव्यवस्था के तंत्र में भारत के विकास की दिशा तय हुई। लेकिन ढाँचागत बदलाव न कर पाने के कारण इस अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण उन्हीं हाथों में रहा जो नौकरशाही, विधायिका और न्यायपालिका की दुर्बलताओं का अपने हित में दोहन करने में माहिर थे, परिणामतः अधिकांश सरकारी उपक्रम घाटे में चले गए। व्यवस्था की असफलता विकराल रूप में सामने आयी और 'चार दशकों तक समाजवाद का नाम लेने वाले नीति निर्माताओं ने यकायक उल्टे घूम जाने का निर्णय लिया। इस मुद्दे पर जनादेश लेने की तो दूर, उन्होंने मतदाताओं को इसके लिए आगाह भी नहीं किया। 20 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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