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चली है रस्म कि कोई सर उठा के न चले
( भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में भारतीय शिक्षा व्यवस्था )
'भारतीय शैक्षिक परिदृश्य के प्रति व्यापक रूप में उपेक्षा का रवैया अपनाया गया है। इस उपेक्षा ने भारतीय शिक्षा को, सूचना विस्फोट के इस युग में भी ज्ञान, शोध, रचनात्मकता और अद्यतन स्थापनाओं से सम्पन्न नवीन ग्रहणशीलता जैसी उसकी बुनियादी विशेषताओं से महरूम कर दिया है । इस भयावह और निराशाजनक परिदृश्य में मात्र बदलाव से जटिलताएँ हल नहीं होंगी, बल्कि उनमें आमूल चूल क्रान्तिकारी पहल करनी होगी । कृषि क्षेत्र में हरित क्रान्ति की पहल
नयी तकनीक के बल पर उच्चतम स्तर की उत्पादन क्षमता एवं संपन्नता हासिल की है, अब शिक्षा के क्षेत्र में भी क्रान्ति करनी होगी ताकि नवीनतम सूचना एवं संचार तकनीक के बल पर स्वाधीनता, अद्यतन शैक्षिक उपलब्धियों का उपयोग विकास एवं संवर्द्धन हेतु संभव हो, बेशक यह पूरी तकनीक प्रतिस्पर्धात्मक एवं बाजार केन्द्रित होगी। अब कठोर कदम उठाने की अपरिहार्यता है, सुधारवादी रवैये से स्थितियाँ नहीं बदलेंगी।' (Mukesh Ambani, Kumarmangalam Birla-Report on a policy framework for reforms in education, Page No. 48, April 2000.)
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'अगर अम्बानी-बिड़ला की यह रिपोर्ट स्वीकार ली जाती है तो भारत की भावी शिक्षा का रूप स्पष्ट हो जाता है। सन् 2015 में देश के श्रमिक वर्ग के बच्चे (लगभग 63 प्रतिशत) कक्षा आठ तक ही शिक्षित हो पाएंगे और इनके पास मात्र साक्षरता का कौशल होगा । वे गरीब बच्चे वैश्वीकरण द्वारा पैदा की गई सूचना प्रौद्योगिकी व अन्य तकनीक का उपयोग करने वाले वैश्वीकृत श्रमिक बनेंगे । इन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खरीदकर एक देश से दूसरे देश ले जाकर अपने कारखानों में
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004
निरंजन सहाय
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