________________
है । फिर क्रमश: 12-16 पाद रहते-रहते 8 पाद वाली मकड़ी बनती है। फिर मक्खी जिसके दो पंख और 6 पाद होते हैं । फिर (चतुष्पाद कीट) सृष्टि यहीं तक है ।
कीट से पशु- पशु के भी चार पांव होते हैं किन्तु कीट की अपेक्षा उसके शरीर का अधिक भाग भूमि से बहुत ऊपर उठ जाता है। उसका सारा शरीर न तो सर्प की भाँति भूमि से चिपटता है, न देवों की भाँति सर्वथा भूमि से ऊपर उठ जाता है। वह तिरछा होकर भूमि के समानान्तर रहता है । इसीलिए उसे तिर्यञ्च कहा जाता है। पक्षी में भूमि का यह आकर्षण और भी कम हो जाता है, उसकी पूँछ भूमि की तरफ रहती है किन्तु मस्तक ऊपर की ओर उठा रहता है, इसलिए पक्षी पशु की अपेक्षा अधिक कुशलता दिखाते हैं । पशु आहार तो करता है किन्तु अपना घर नहीं बनाता। पक्षी अपना घर भी बनाता है । बया जैसे पक्षी का घोंसला तो शिल्प का उत्कृष्ट उदाहरण है और उसकी बुद्धिमत्ता का परिचायक है । किन्तु पशु-पक्षी तक में भी रजोगुण ही मुख्य है।
तिर्यञ्च से मनुष्य : तिर्यञ्च के बाद मनुष्य योनि आती है। यह चतुष्पाद से द्विपाद बन जाता है किन्तु उससे भी बड़ी विशेषता यह है कि इसका मुख पशु-पक्षियों के समान भूमि की ओर झुका नहीं रहता अपितु सूर्य की ओर लम्बित हो जाता है। यह सत्वगुण के आधिक्य का सूचक है। इसलिए मनुष्य सभी दृश्यमान प्राणियों में सबसे अधिक बुद्धिमान है। इस बुद्धि के आधार पर वह केवल अपने लिए सुख-सुविधा ही नहीं जुटाता अपितु उचित - अनुचित का विवेक भी करता है । यही उसकी अन्य प्राणियों की अपेक्षा विशेषता है।
वानर - पशुओं और मनुष्यों के बीच की स्थिति वानरों की है जिन्हें नरों के निकट होने के कारण वानर कहा जाता है। वह पशुओं के समान चार पैरों पर चलता है तथा किसी भोज्य पदार्थ को खाने के लिए अपने दो पैरों को मनुष्य के समान हाथों की तरह भी काम में लेता है। इस प्रकार के शारीरिक सादृश्य को देखकर डॉर्विन ने यह निर्णय ले लिया था कि वानर जाति मानव जाति का पूर्व रूप है किन्तु शारीरिक दृष्टि से भी मनुष्य और वानर में यह मौलिक अन्तर है कि मानव शिशु के उत्पन्न होने पर उसका नाल काटना पड़ता है जबकि वानर के साथ ऐसा नहीं होता । यह सच है कि वानर भी अपना मुख मनुष्य के समान ही कभी-कभी भूमि से ऊपर उठा लेता है और इस अपेक्षा से वह और पशुओं की अपेक्षा बुद्धिमान भी अधिक है । वनमानुष जैसे पशु में यह बुद्धिमत्ता स्पष्ट भी है किन्तु मनुष्य की बुद्धिमत्ता को वह नहीं छू सकता, क्योंकि मूलत: वह भी चौपाया ही है, दुपाया नहीं ।
मनुष्य में भी देखने में आता है कि ज्यों-ज्यों शिशु का बौद्धिक विकास होता है, त्योंवह भूमि से ऊपर उठता है। प्रारम्भ में यह पूरा का पूरा भूमि से जुड़ा रहता है। धीरे-धीरे वह सिर से ऊपर उठता है और फिर हाथ-पाँव के बल चलते हुए अन्ततः दो पांव पर खड़ा होता है। इस क्रम में जैसे-जैसे उसका भूमि से सम्पर्क कम होता है वैसे-वैसे बुद्धि का भी विकास होता है । इस प्रकार पाषाण और धातुओं से लेकर मनुष्य योनि तक जीव का विकास इस बात से जुड़ा है कि उसका शरीर भूमि के बन्धन से कितनी मात्रा में मुक्त हो पाता है।
तुलसी प्रज्ञा अंक 123
4
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org