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________________ भी प्रतीति में आते हैं फिर भी इनमें तमोगुण अभी इतना प्रबल रहता है कि ये अपने स्थान से चलकर दूसरे स्थान पर नहीं जा सकते अर्थात् ये स्थावर ही हैं, जंग अथवा त्रस नहीं। वनस्पति और पाषाण- तमोगुण का न्यूनाधिक भूमि के सम्पर्क के न्यूनाधिक्य से जाना जाता है। एक पत्थर की शिला को देखें तो उसका जितना भाग भूमि का स्पर्श करता है, एक वृक्ष का उसकी अपेक्षा बहुत कम भाग भूमि का स्पर्श करता है। केवल उसका तना भूमि को छूता है किन्तु शाखा, प्रशाखा, फल-फूल, पत्ते सब भूमि से ऊपर रहते हैं। यह इस बात का सूचक है कि वनस्पति में पत्थर की अपेक्षा तमोगुण बहुत कम है। कर्म तथा त्रिगुण - तमोगुण, रजोगुण तथा सत्वगुण जैनों के कर्मों के समान स्वयं जड़ होने पर भी जीव की चेतना को प्रभावित करते हैं। जिस प्रकार कोई भी सांसारिक जीव कर्म के बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार कोई भी संसारी जीव कर्म के बिना नहीं रह सकता। कर्म के क्षयोपशम की भांति जीव के त्रिगुणों में भी न तो कर्म रहते हैं, न त्रिगुण पाषाण धातु में तमोगुण व्यक्त हो जाता है, रजोगुण तथा सत्वगुण अव्यक्त हैं । वनस्पति में रजोगुण भी व्यक्त हो जाता है किन्तु सत्वगुण अव्यक्त है। ये सब वक्तव्य मुख्य-गौण की अपेक्षा है। परमार्थतः सबमें सभी गुण हैं। त्रिगुण, त्रिदेव तथा त्रिलोक - वैदिक परम्परा गुणों का सम्बंध त्रिदेवों से तथा त्रिलोकी मानकर चलती है। अग्नि तथा भूमि का संबन्ध तमोगुण से है, वायु तथा अन्तरिक्ष का संबंध रजोगुण से है तथा आदित्य एवं धूलों का संबंध सत्वगुण से है। इसलिए जैसे ही वनस्पति में रजोगुण अभिव्यक्त होता है, वनस्पति वैसे ही अंतरिक्ष में प्रसार करने लगती है। क्योंकि रजोगुण का संबंध अंतरिक्ष से है। लताओं में वृक्षों की अपेक्षा तमोगुण अधिक होता है, अत: वे पृथ्वी पर ही फैलती हैं तथापि वे वनस्पति की सजातीय होने के कारण अन्तरिक्षोन्मुखी होना चाहती है और वृक्ष अथवा भीति आदि का सहारा पाकर ऊपर की ओर फैलने लगती है। इतना ही नहीं, यदि किसी लता के निकट कोई वृक्ष हो तो वह लता किसी ओर न जाकर वृक्ष की ओर बढ़ती है ताकि उसे वृक्ष का सहारा मिले तो वह भूमि के बंधन से उठकर अन्तरिक्ष में जा सके । यह जीव के ऊोन्मुख होने की यात्रा का ही प्रारम्भ है। इस यात्रा का चरम बिन्दु तो वे देव हैं जो भूमि का बिल्कुल भी स्पर्श न करके केवल अधर में ही विचरण करते हैं। सहस्त्रपाद से चतुष्पाद- देव योनि से पहले वनस्पति के बाद अभी जीव को और भी यात्रा करनी है। एक सहस्त्रपाद कीट को देखें। मानो उसका सारा शरीर पांव ही पांव है। वह भूमि से जुड़ा है। किन्तु वह वनस्पति की अपेक्षा भूमि के बंधन से इतना मुक्त हो गया है कि वह वृक्ष की भांति भूमि से चिपका हुआ नहीं है। वह एक स्थान से दूसरे स्थान तक जा सकता है, किन्तु सहस्त्र पांवों के माध्यम से वह अधिकाधिक भूमि से जुड़कर ही चल सकता है। भूमि से उसका यह जुड़ाव धीरे धीरे कम होता है। सहस्त्रपाद शतपाद बन जाता तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 - - 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524618
Book TitleTulsi Prajna 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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