________________
उत्तर-आकाशीय बिजली यानी आकाश में चमकने वाली विद्युत् यानी 'विजू', कड़क कर गिरने वाली विद्युत् यानी अशनि या वज्रपात तथा उल्कापात (जो घर्षण से चमकते हुए पिण्ड पृथ्वी पर गिरते दिखाई देते हैं, जिन्हें Meteor कहा जाता है)-ये सभी केवल जलने की स्थिति में सचित्त तेउकाय हैं । न इससे पूर्व, न पश्चात्। बिजली का पृथ्वी में समा जाना यानी विद्युत्-आवेश का मुक्त रूप आ जाता है। "जलने" की क्रिया न करते समय विद्युत-ऊर्जा को तेउकाय नहीं माना जा सकता। यदि उसे तेउकाय मान लेगें, तो फिर सभी इलेक्ट्रीक चार्ज को तेउकाय मानना पड़ेगा, किन्तु ऐसा नहीं है।
इलेक्ट्रीसीटी अपने आप में केवल पौद्गलिक ऊर्जा है। जब वह तार में से गुजरती है, तब भी वह केवल पौद्गलिक ऊर्जा है, भले वह पावर-हाऊस से उत्पन्न हो या आकाशीय विद्युत् से "डीस्चार्ज" से उत्पन्न इलेक्ट्रीक चार्ज हो। आकाशीय बिजली (विजू) को सचित्त तेउकाय केवल आकाश में विद्यमान ऑक्सीजन के सहयोग से ज्वलनशील पदार्थों को जलाते समय ही मानना होगा। जब वही चार्ज गगनचुंबी इमारत के ऊपर लगे हुए तार से हो जाता है, तब उसे सचित्त तेउकाय नहीं माना जा सकता, क्योंकि तार के भीतर गुजरते समय उसका तेउकाय परिणमन नहीं होता। न वहाँ जलन या दहन क्रिया हो रही है और न ही वहाँ प्रकाश या चमक होती है। यदि वह तेउकाय होती, तो फिर स्वयं तार भी जल जाता। इतना भारी होने पर भी तार इसीलिए नहीं जलता कि वहाँ दहन-क्रिया का अभाव है।
पावर हाऊस से उत्पन्न बिजली जब तक तार में है, वह भी पौदगलिक (निर्जीव) है। तार से बाहर जब खुली हवा में वह ज्वलनशील पदार्थों के संयोग में उचित तापमान पर आती है, तभी वह अग्नि पैदा कर सकती है। इस प्रकार तार में प्रवाहित बिजली और खुले आकाश में चमकने वाली बिजली का भेदाभेद बहुत स्पष्ट हो जाता है।
जिस तार से बिजली गुजर रही है, उस तार को पकड़ने वाला व्यक्ति किस अवस्था में है, पर वह जलेगा या नहीं, इसका आधार है- यदि व्यक्ति Insulator पर खड़ा है, तो तार वाली बिजली का करंट उसमें प्रेवश नहीं करेगा। यदि वह Earthing कर रहा है तो तुरंत करंट उसमें आ जाएगा।
जैन दर्शन के अनेकांत को समझने वाले पर्याय-भेद और परिणमन-भेद को नहीं समझते तथा केवल द्रव्य-अभेद के आधार पर सार्वत्रिक और समस्त अभेद मान ले तो यह कहाँ तक संगत है?
सन्दर्भ ग्रन्थ : 1. मुनि यशोविजयजी, विद्यत् सजीव या निर्जीव (द्वितीय आवृत्ति), पृष्ठ 15 . 2. वही, पृष्ठ 17, 18, 19 78 -
तुलसी प्रज्ञा अंक 123
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org