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________________ गुजरात समाचार ता. २६-६-२००२ बुधवार की पूर्ति में इलेक्ट्रीक लाइट कैसे काम करती है ? इस हेडिंगवाले लेख में भी बताया गया है कि "क्या आप जानते हैं कि बल्ब में वायु भी होती है ? हाँ, बल्ब में वायु भी होती है जिसका नाम है आर्गन'। यह वायु टंगस्टन के साथ जुड़ नहीं सकती। इसीलिए उसे बल्ब में भरा जाता है।" १. ई.स. १९२० तक आर्गन वायु का उपयोग उद्दीप्त दीया भरने में होता था। आर्क वेल्डींग में अनिच्छनीय ओक्सीडेशन रोकने के लिए प्रतिदीप्त दीया, (Flourscent Lamp) इलेक्ट्रोनिक नलियाँ वगैरह भरने के लिए उसका उपयोग होता है। (विज्ञानकोश रसायण विज्ञान भाग-५, पृष्ठ-५५ कु.सी.वी. व्यास कृत-'आर्गन' प्रकरण में से साभार उद्धृत)। यह वायु टंगस्टन के साथ जुड नहीं सकता। इसीलिए उसे बल्ब में भरा जाता है। लोकप्रकाश ग्रंथ के पांचवें सर्ग में पूज्य उपाध्याय श्री विनय विजयजी महाराज तथा पंचसंग्रह की व्याख्या में श्री मलयगिरिसूरिजी ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि "लोकस्य हि यत् किमति सुषिर तत्र सर्वत्र अपि पर्याप्तबादरवायवः प्रसर्पन्ति। यत् पुनः अतिनिबिडनिचिताऽवयवतया सुषिरहीनं कनकगिरिमध्यादि तत्र न॥" (पंचसं. वृत्ति-द्वार-२ गाथा २५) अर्थात् जहाँ पोलापन होता है वहाँ बादर पर्याप्त वायुकाय अवश्य होता है । मेरुपर्वत के पोलाण-शून्य और अत्यन्त निबिड़ ऐसे मध्य भाग में वायुकाय नहीं होता है। इसके अलावा समग्र विश्व में जहाँ-जहाँ पोलापन है वहाँ अवश्य बादर पर्याप्त वायुकाय अथवा वायु द्रव्य का अस्तित्व शास्त्रसिद्ध है। जीवन समासव्याख्या में मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराज ने भी यही बात कही है लोकस्य हि यावत् किमपि शषिर तावति सर्वस्मिन्नपि वायवः सञ्चरन्त्येव। यत्पुनः अशुषिरं घनं कनकगिरिशिलामध्यभागादिकं तत्रैव ते न प्रसर्पन्ति। (जीवसमास गा.१८० वृत्ति) पनवणा सूत्र व्याख्या में भी आचार्यश्री मलयगिरिसूरिजी महाराज ने स्पष्ट बताया है कि 'यत्र सुषिर तत्र वायुः' (पद -२ सूत्र ४०, पृष्ठ-७८) अथात् जहाँ पोलापन होता है वहाँ वायु होता है । बल्ब अन्दर से एकदम ठोस, घन नहीं होता। इसलिए बल्ब के अन्दर वायु का अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिए बादर वायु वाले अथवा निर्जीव वायुवाले बल्ब वगैरह में अग्निकाय को उत्पन्न होने में कोई भी दिक्कत बाधा आगम की दृष्टि से नहीं आती है। इसी प्रकार बल्ब में संपूर्ण शून्यावकाश तो विज्ञान अथवा जैनागम दोनों से किसी एक 70 तुलसी प्रज्ञा अंक 123 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524618
Book TitleTulsi Prajna 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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