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________________ जीव का क्रमिक विकास : जैन तथा वैदिक दृष्टि प्रस्तुत लेख में हम विचार करेंगे कि वैदिक परम्परा में जीव का निरूपण किस रूप में हुआ है, क्योंकि वैदिक परम्परा में जीव का निरूपण अनेक दृष्टियों से जैन परम्परा के निकट भी है और अनेक दृष्टियों से उसका अपना वैशिष्ट्य भी है। अत: दोनों का तुलनात्मक अध्ययन दोनों परम्पराओं के लिए ज्ञानवर्द्धक सिद्ध होगा । वर्गीकरण का आधार जैन और वैदिक परम्परा में जीव के विकास का तारतम्य ज्ञान के विकास के आधार पर माना जाता है। ज्ञान के विकास का यह तारतम्य जैन परम्परा में ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम पर आश्रित है। वैदिक परम्परा में ज्ञान का विकास तीन गुणों के आधार पर किया गया है - तमोगुण की जितनी अधिकता होती है, ज्ञान उतना कम होता है और सत्वगुण की जितनी अधिकता होती है, ज्ञान उतना अधिक होता है। जैन दर्शन में ज्ञान के विकास की सूचना इन्द्रियों के विकास से मिलती है- एकेन्द्रिय का ज्ञान सबसे कम है पंचेन्द्रिय का ज्ञान सबसे अधिक है। वैदिक परम्परा में ज्ञान के विकास की सूचना इस बात से मिलती है कि जीव का भूमि से स्पर्श कितना कम या ज्यादा है। जिस जीव का भूमि से जितना संस्पर्श अधिक है उसका ज्ञान उतना ही अधिक है और जिस जीव का भूमि से जितना संस्पर्श कम है उसका ज्ञान उतना ही कम है। 1 प्रो. दयानन्द भार्गव - इस प्रारम्भिक भूमिका के बाद अब हम वैदिक परम्परा में जीवों के वर्गीकरण का कुछ विस्तार से चर्चा करेंगे। जैन परम्परा में जीव का निरूपण का विस्तार श्री भिक्षु आगम विषय कोष और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष में सप्रमाण विस्तार से दिया गया है। जीव की तीन शक्तियां- वैदिक परम्परा में जीव की तीन शक्तियां मानी गई हैंअर्थ-शक्ति, क्रिया-शक्ति और ज्ञान-शक्ति । इनमें क्रमश: पहली की अपेक्षा दूसरी और दूसरी अपेक्षा तीसरी अधिक सूक्ष्म और अधिक शक्तिशाली है । Jain Education International पाषाण की स्थिति - जीवों की सबसे निम्न कोटि में वे जीव आते हैं जिनमें अर्थ-शक्ति ही मुख्य है । पाषाण और सभी धातुएं इसी कोटि के जीव हैं । सामान्यतः इन्हें अचेतन माना जाता है किन्तु जैन इन्हें स्थावर जीव मानता है, क्योंकि इनमें स्थूल क्रिया नहीं है। वैदिक परम्परा भी तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.524618
Book TitleTulsi Prajna 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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