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उभयतः पाश
आकाश के सामने प्रस्तुत होता हूँ तब अपने को एक परमाणु जैसा पाता हूँ / सागर के सामने प्रस्तुत होता हूँ तब अपने को एक बिन्दु जैसा पाता हूँ | मैं चेतन हूँ, आकाश अचेतन है । मैं विचारशील हूँ, सागर विचारशून्य है, फिर भी आकाश और सागर की तुलना में मैं छोटा हूँ। क्या यह चैतन्य को चुनौती नहीं है ? क्या चैतन्य असीम और अपार नहीं है? यदि है तो वह साढ़े तीन हाथ की सीमा में सीमित क्यों ? यदि वह असीम और अपार नहीं है तो आकाश और सागर को अपनी बांह में भरने का प्रयत्न क्यों ?
- अनुशास्ता आचार्य तुलसी
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