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________________ जैन कला का विकास- कला के प्रारम्भिक काल में इन प्रतीकों का पर्याप्त प्रचलन रहा। किन्तु जैसे-जैसे कला-बोध विकसित हुआ त्यों-त्यों प्रतीक को अधिक महत्त्व मिलने लगा। इसी काल में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों का निर्माण होने लगा । प्रारम्भ में प्रकृत भूमि से ऊंचे स्थान पर देव मूर्ति स्थापित की जाती थी। उसके चारों और वेदिका का निर्माण होता था। धीरे-धीरे वेदिका को ऊपर से आच्छादित (ढ़कना) किया जाने लगा। यही देवायतन, देवालय या मन्दिर कहे जाने लगे। प्रारम्भ में यह देवायतन सीधे साधे रूप में बनाए जाते थे। कालान्तर में कलात्मक रुचि में अभिवृद्धि हुई। मूर्ति स्थापना के स्थल पर गर्भगृह को परिवेष्टित (घिरा हुआ) करने के अतिरिक्त उसके बाहर चारों ओर प्रदक्षिणा पथ का निर्माण हुआ। गर्भगृह के बाहर आच्छादित प्रवेशद्वार या मुखमण्डप का निर्माण हुआ। धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर शिखर तथा बाहर मण्डप, अर्धमण्डप, महामण्डप आदि का विधान हुआ। जैन कला को प्रारम्भ करने में ऋषभदेवजी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ऋषभदेवजी के काल को नागरिक सभ्यता का काल भी कहा जाता है। इसी काल में अयोध्या नगरी की रचना हुई। इसके साथ ही नगर के मध्य में पांच देवालयों या जिनालयों की रचना करके उसमें मूर्ति स्थापना प्रारम्भ हुई। पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार प्रारम्भ में मूर्तियाँ मिट्टी की होती थी मगर यह चिरस्थायी नहीं थी। अतः इन मृणमूर्तियों को पकाया जाने लगा। मगर यह भी स्थायी नहीं रही। अतः पाषाण की मूर्तियाँ बनाई जाने लगी। इस प्रकार चट्टानों को काटकर या गुफाओं में मन्दिर एवं मूर्तियाँ बनाने का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। इन गुफा मन्दिरों में स्थायित्व अधिक होने लगा। इसी कारण ईसा पूर्व का एक भी मन्दिर विद्यमान नहीं है जबकि गुफा मन्दिर हैं। मन्दिर में स्थायित्व के साथ-साथ दक्षिण भारत में बहुत संख्या में मन्दिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ। उत्तर की भाँति दक्षिण में मुस्लिम आक्रान्ताओं का भय कम था (या नहीं था) और जहाँ दक्षिण में राजाओं, रानियों और राजश्रेष्ठियों द्वारा मन्दिरों का निर्माण हुआ वहीं उत्तर भारत में जन सामान्य द्वारा । इस कारण से दक्षिण भारत के मन्दिरों में सुरक्षा एवं स्थायित्व अब तक विद्यमान है। इसका एक मुख्य कारण उत्तर भारत में भीषण अकाल की वजह से कई जैनाचार्यों का दक्षिण में पलायन भी था। श्रवणबेलगोला और विन्ध्यगिरि- श्रवणबेलगोला मैसूर राज्य के हासन जिले में अत्यन्त प्राचीन और धार्मिक स्थल है। यहाँ के शिलालेख भव्य तथा पवित्र मन्दिर, प्राचीन गुफाएं और विशाल मूर्तियाँ, ये सब न केवल जैन पुरातत्त्व की दृष्टि से अपना महत्त्व रखते हैं, अपितु इनमें भारत की सभ्यता, संस्कृति तथा इतिहास का भी घनिष्ठ संबंध है। यहीं पर हैं। पक्षी भूलकर भी इस मूर्ति के ऊपर से नहीं उड़ते । बाहुबलीजी के दोनों कर्णों में से केसर की सुगन्ध निकलती है। मूर्ति के चरणों पर पुष्पवृष्टि ऐसी प्रतीत होती है मानो उज्ज्वल तारा-समूह उनके चरणों की वंदना को आया हो तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 - - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524618
Book TitleTulsi Prajna 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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