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पद्मसरोवर - देव निर्मित स्वर्णकलश पर आसीन
क्षीर सागर - अनन्त ज्ञान-दर्शन रूप मणि-रत्नों का धारक
विमान – वैमानिक देवों द्वारा पूजित
रत्न - राशि - मणि रत्नों से विभूषित
निर्धूम अग्नि - धर्मरूप स्वर्ण को विशुद्ध व निर्मल करने वाला ।
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स्वप्न शास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न कुल बहत्तर स्वप्नों का उल्लेख है । जब अरहंत और चक्रवर्ती गर्भ में आते हैं तो उनकी माता तीस महास्वप्नों में से चवदह महास्वप्नों को देखकर जागती है । वासुदेव जब गर्भ में आते हैं तो उनकी माता चवदह महास्वप्नों में से किन्हीं सात महास्वप्नों को देखकर जागृत होती है। जब बलदेव गर्भ में आते हैं तो उनकी माता इनमें से किन्हीं चार महास्वप्नों को देखती है । जब मांडलिक राजा गर्भ में आता है तो उनकी माँ कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है।
उत्तराध्ययन सुखबोधा वृत्ति के अनुसार हाथी का स्वप्न देखने वाला धन्य होता है, यह सुख और धनलाभ कराता है । एक स्वस्थ व्यक्ति स्वप्न में जो कुछ देखता है, यदि वह दृश्य पूर्व अनुभूत, दृष्ट और चिन्तित न हो तो उस व्यक्ति का स्वप्न अवश्य फलित होता है ।
जैन मनोविज्ञान के अनुसार स्वप्न अर्द्धनिद्रित दशा में आता है। महारानी धारिणी के स्वप्न की स्थिति के संदर्भ में कहा गया- - जब वह न नींद में थी, न जाग रही थी बल्कि जब वह हल्की नींद ले रही थी, ऊंघ रही थी, तब उसने स्वप्न देखा। 1950 के प्रारम्भ में शिकागो विश्वविद्यालय के शरीरशास्त्री नेथेलियन क्लीटमां की टीम का यह अनुभव रहा कि जब नींद में रेपिड आई मूवमेंट (REM) होता है तब व्यक्ति स्वप्नावस्था में होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जब हम सपने देखते हैं तो हम आधी नींद में होते हैं और मस्तिष्क की तरंगें जागृत मस्तिष्क की तरह ही रहती हैं। स्पष्ट है कि स्वप्न नींद का परिणाम नहीं किन्तु इसे नींद के साहचर्य की आवश्यकता होती है। वाल्टेयर (1974) में हुए एक अनुसंधान के अनुसार व्यक्ति 8 घंटे की नींद में 6.45 घंटे स्वप्न ही देखता है। ब्राउन महोदय के अनुसार स्वप्न ही निद्रा का रक्षक होता है। चूँकि स्वप्न का एक कारण बाह्य उत्तेजना ही है। यदि स्वप्न न होंगे तो स्वप्न की कारणभूत उत्तेजना निद्रा को समाप्त कर देने वाली हो जाएगी। स्वप्न ही वस्तुतः निद्रा को कायम रख पाते हैं ।
फ्रायड के अनुसार स्वप्न न हों तो नींद का बने रहना ही असंभव हो जाए। इनसे हमारी सुखद-दुःखद सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है व मानसिक शांति मिलती है। इनमें न तो दिवा स्वप्नों के समान समय ही खराब होता है, न भूलों के समान हानि होती है और न असामान्य व्यवहार के समान अनुकूलन में बाधा पड़ती है ।
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च,
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