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अर्थात् किसी स्त्री ने श्वेत अगरु से बना अंगराण को पार्वती के शरीर पर मला और फिर गोरोचन से उसके शरीर पर चिऋकर्म किया। जिस गंगा के किनारे की बालू में चकवे बैठे हों वह श्वेत धारा वाली गंगा भी पार्वती के शरीर के सामने फिकी लग रही थी।
भगवान महावीर के शरीर में दीक्ष पूर्व विभिन्न प्रकार के सुगंधित द्रव्यों का लेप किया गया था, जिसके कारण दीक्षोपरान्त (मुनि-जीवन में) बहुत से भंवरे आदि सुगंध से आकर्षित होकर उनके शरीर को डस लेते थे।
सूत्रकृतांग में अनेक स्थलों पर वर्णक (चंदन का विशष्ट अंगराग), विलेपन तथा सुगंधित पुष्पमालाओं का वर्णन है - वण्णग-विलेवण......५८ भगवतीसूत्र में अनेक बार विलेपण का निर्देश है।९ ज्ञाताधर्मकथासूत्र में विशिष्ट प्रकार के विलेपण का उल्लेख है। वही पर अगरु पुष्पमाल्यादि श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्यों के साथ विलेपन का वर्णन है -
अगरुवर-पवरघूवण उउयमल्लाणुलेवणविहीसु।
गंधेसुरजमाणा रमंति घाणिदिय-वसट्टा । सरस और सुरभित श्रेष्ठ गोशीर्ष चंदन के बने वर्णक (अंगराग) और विलेपन से श्रेणिक राजा के शरीर को लिप्त किया जाता था। सरस सुरभि-गोसीस-चंदणाणुलित्त गत्त सुइमालावण्णगविलेपणे६१
वर्णक-विलेपन का अन्यत्र भी निर्देश है। संयमियों के लिए इसका निषेध था।६२ उपासकदशाध्ययन सूत्र में अनेक स्थलों पर विलेपनविधि का उल्लेख है। गाथापति आनंद अगरु, कुंकुम और चंदनादि से बने विलेपन को छोड़कर अन्य विलेपन विधियों का परित्याग कर देता है।६३ भगवान के पास जब जाता है तो आभूषण विलेपनादि का परित्याग कर जाता है।६४ अन्यत्र अन्य उपासकों के लिए भी ऐसा ही वर्णन है। द्वितीय अध्ययन में देव के दिव्यविलेपन का भी उल्लेख है।६५
__ अन्य आगम ग्रंथों में भी अनेक स्थलों पर विलेपन एवं विलेपनविधि शब्द का प्रयोग हुआ है। औपपातिक के कूणिक राजा द्वारा सुगंधित विलेपन के द्वारा शरीर को लेपन कराये जाने का सुन्दर वर्णन है। स्नानादि के बाद राजा कूणिक सरस सुरभित गोशीर्षचन्दन का विलेपन कराता है।६ औपपातिक सूत्र में ही अन्यत्र भी 'वण्णग विलेवण' शब्द का उल्लेख है।६७ वहीं पर गंध-समुद्गत विलेपन को महासौख्य का प्रतीक माना गया है।६८ वहीं पर पुरुषों की १९ वीं कला के रूप में विलेपन विधि का निर्देश है ।९ जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में भरत राजा का विलेपन विधान निर्दिष्ट है। व्रत धारण काल में भरतराजा द्वारा विलेपन का परित्याग कर दिया जाता है। इस प्रकार आगम साहित्य में 'विलेपन-कला' का प्रभूत चित्रण मिलता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2004 -
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