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________________ भगवती में इसका उल्लेख है तथा वहाँ भी इसका वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के बहुवक्तव्य पद से समझने के लिए कहा है।" जो द्रव्य द्रव्यदृष्टि से तुल्य होते हैं वे ही प्रदेशार्थिक दृष्टि से अतुल्य हो जाते हैं। जैसे – धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यदृष्टि से एक-एक होने से तुल्य हैं, किन्तु प्रदेशार्थिक दृष्टि से धर्म और अधर्म ही असंख्यात प्रदेशी होने से तुल्य हैं, जबकि आकाश अनन्त प्रदेशी होने से अतुल्य हो जाता है। इसी प्रकार द्रव्यों में भी इन द्रव्य और प्रदेश दृष्टियों के अवलम्बन से तुल्यता-अतुल्यता रूप विरोधी धर्मों और विरोधी संख्याओं का समन्वय भी हो जाता है। ओघादेश-विधानादेश (सामान्य- विशेष ) भगवती में कृत-युग्मादि संख्या का विचार ओघादेश और विधानादेश – इन दो दृष्टियों से किया गया है। जैसे वहाँ गौतम ने प्रश्न पूछा कि भगवन् जीव द्रव्यार्थ रूप से कृतयुग्म है ? तब भगवान महावीर उत्तर देते हुए कहते हैं कि गौतम् ! वे ओघादेश से ( सामान्यतः ) कृतयुग्म हैं किन्तु त्र्योज, द्वापरयुग्म या कल्योज रूप नहीं हैं। विधानादेश (प्रत्येक की अपेक्षा) से वे कृतयुग्म, त्र्योज तथा द्वापरयुग्म नहीं हैं। किन्तु कल्योज रूप हैं। 18 यहाँ हमें यह सूचना मिल जाती है कि इन दोनों दृष्टियों का प्रयोग कब करना चाहिए। सामान्यतः यह प्रतीत होता है कि वस्तु की संख्या तथा भेदाभेद के विचार में इन दोनों दृष्टियों का उपयोग किया जा सकता है। व्यावहारिक और नैश्चयिक नय भगवती में व्यावहारिक और नैश्चयिक नयों के माध्यम से भी वस्तु - स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया है। यहाँ फाणित प्रवाही 18-ए (गीला) गुड़ को दो नयों से समझाया गया है। व्यावहारिक नय की अपेक्षा से तो वह मधुर कहा जाता है पर नैश्चयिक नय से वह पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्शो से युक्त है । " भ्रमर के विषय में भी उनका कथन है कि व्यावहारिक दृष्टि से भ्रमर कृष्ण है पर नैश्चयिक दृष्टि से उसमें पाँचों वर्ण, दोनों गन्ध, पाँचों रस और आठों स्पर्श होते हैं। 20 इस प्रकार वहाँ इसी प्रसंग में अनेक विषयों को लेकर व्यवहार और निश्चय नय से उनका विश्लेषण किया है। अपने-अपने क्षेत्र में ये व्यावहारिक और नैश्चयिक - ये दोनों नय सत्य हैं । व्यावहारिक सभी मिथ्या ही हैं या नैश्चक ही सत्य हैं, ऐसा मान्य नहीं है। इन दोनों नयों के द्वारा ही वस्तु का सम्पूर्ण दर्शन हो पाता है। आगे के जैनाचार्यों, विशेषतः आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार-निश्चय नय का तत्त्वज्ञान अनेक विषयों में प्रयोग किया है। इतना ही नहीं, बल्कि तत्त्वज्ञान के अतिरिक्त आचार के अनेक विषयों में भी इन नयों का उपयोग किया है। 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 122 www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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