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________________ 1. बिजली चमकने की प्रक्रिया खुले वातावरण में होती है। जहां अग्नि को उत्पन्न करने वाली ऑक्सीजन प्राणवायु उपलब्ध है। 2. बिजली चमकने के (प्रकाश के साथ उष्मा ऊर्जा का उत्सर्जन तापमान की अत्यधिक वृद्धि करता है। इससे हवा में विद्यमान ज्वलनशील गैस या अन्य सूक्ष्म पदार्थों को ज्वलन - - बिंदु प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार 'अग्नि' या ज्वलन की क्रिया के लिए उपयुक्त सामग्री प्राप्त होती है यानी अग्नि की योनि या तेउकाय की योनि उपलब्ध होती है । तात्पर्य यह हुआ कि यद्यपि इलेक्ट्रीसीटी के रूप में डीस्चार्ज होने वाली ऊर्जा स्वयं पौद्गलिक होने पर भी जब बिजली चमकती है तो उसके कारण तुरंत अग्नि-दहन की प्रक्रिया के रूप में सचित्त तेउकाय की उत्पत्ति होती है । इसी कारण से "विज्जू" (आकाशीय बिजली या विद्युत्) को तेउकायिक जीवों की गणना में लिया गया है। डॉ. जे. जैन के अनुसार "बिजली खुद कोई प्रकाशक व तापक पुद्गल नहीं है। यह केवल इलेक्ट्रो-मेग्नेटिक फील्ड लिए हुए चार्ज या ऊर्जा है। यह ताप व प्रकाश आदि अन्य ऊर्जा में परिणत जरूर हो सकती है। आकाश में जब यह 'विद्युत्चाप' बनती है तो वो ऊर्जा के अन्य रूप में परिणत हो जाने से दिखाई व सुनाई पड़ती है तथा सचित्त अग्निकाय बनती है ।' 11110 इलेक्ट्रीसीटी स्वयं केवल ऊर्जा है। किन्तु जब आकाशीय विद्युत् किसी पर गिरती है, तब उच्च तापमान भी उसके साथ विकिरित होता है, जो ज्वलनशील पदार्थ को भस्मसात् कर देता है। जहां शरीर के भीतर यह प्रवेश कर लेती है वहां उसका प्रभाव नर्वस सिस्टम पर होने से वह व्यक्ति को मार देती है या शरीर के तंत्रों को क्षतिग्रस्त कर देती है। डॉ. जे. जैन के अनुसार "बिजली का अग्नि में रूपान्तरण होने की वजह से आकाशीय विद्युत् सचित्त तेउकाय बन जाती है। कभी-कभी उसके उच्च ऊर्जा या उष्मा का परिणमन आग के गोले के रूप में भी होता है। आग के गोले तेजी से पृथ्वी के भीतर समा जाते हैं । मार्ग में भी जो कोई ज्वलनशील पदार्थ आता है, उसे वह जला देती है। ये वज्रपात (अशनिपात) (Thunder bolt) के रूप में पृथ्वी पर गिरता है, वह भी अपनी तीव्र उष्मा या तापमान के कारण मार्ग में आने वाले पदार्थों को जला कर राख बना देते हैं । ' 19111 डॉ. जे. जैन ने प्राण वायु के कारण आकाशीय बिजली को सचित्त माना है, इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है 2. 'कुचालकता व आयनीकरण: कुचालक पदार्थों में विद्युत् प्रवाह नहीं हो सकता है। अतः विद्युत् उनमें ताप भी पैदा नहीं कर सकती है, जैसे- लकड़ी। साधारणतया गैस में भी विद्युत् प्रवाह नहीं हो सकता है। लेकिन उच्च विद्युत् - दबाव (voltage) हजारों वोल्ट पर तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only 49 www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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