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करता है जिससे वह उक्त परिस्थितियों को प्राप्त होता है। इन परिस्थितियों के परिहार के लिए आवश्यक है कि राग-द्वेष का निरुन्धन हो जाए और राग-द्वेष का निरुन्धन केवल 'समत्व-प्राप्ति' की अवस्था में सम्भव है जिसका विस्तृत विवेचन इस शोध लेख में है। यदि पूर्व विवेचित समस्त तथ्यों का पुनः अवलोकन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आवश्यक सूत्र में प्रतिपादित आचार सभी स्तरों पर, सभी परिस्थितयों में पूर्णत: प्रासंगिक है।
2.
सन्दर्भ1. अनुयोगद्वार चूर्णि, पृ.14
अनुयोगद्वार मल्लधारीय टीका, पृ. 28 3. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2, पृ.313,
(नियमसार, 125 से उद्धृत) जैन, बौद्ध गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2, पृ. 313, (उत्तराध्ययन, 11/10-11 से उद्धृत) हरिभद्र अष्टक-प्रकरण, 30-1 संयुक्त निकाय 1/1/8 सुत्तनिपात 3/37/7
श्रीमद्भागवदगीता 5/11 9. गीता शांकर भाष्य 6/62 10. आवश्यक नियुक्ति 1109 11. धम्मपद, 101 12. श्रीमद्भागवद्गीता 18/65 13. योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश, स्वपज्ञोवृति। 14. आवयक नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहु
उदान 5/5 अनुवादक जगदीश काश्यप, महाबोधिसभा, सारथा 16. कृष्ण यजुर्वेद-दर्शन और चिन्तन:भाग-2, पृ. 192 से उद्धृत 17. खोरदेह अवेस्ता, पृ. 5/23-24 18. आवश्यक नियुक्ति गाथा 1549 19. उत्तराध्यन 26-42 20. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 1594-96 ।
15.
दर्शन एवं धर्म विभाग, कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी-221005
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003 -
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