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________________ आस्था का विधायक है कि मनुष्य अपने प्रयासों एवं सद्कर्मो से जगत् में सर्वोच्च स्थिति (मुक्तावस्था) को प्राप्त कर सकता है। मानव के ऐहिक मूल्यों की प्राप्ति का साक्षात् हेतु तथा पारलौकिक मूल्यों की प्राप्ति का पारम्परिक हेतु जैनाचार मात्र वैयक्तिक मुक्ति का उपाख्यान नहीं करता, अपितु उसे समष्टिगत कल्याण के रूप में देखता है। उसकी यही दृष्टि मनुष्य में आत्मगौरव, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति को उदित करने में सफल रहती है। उक्त विशेषताओं से परिपूर्ण अनन्त शक्ति सम्पन्न तीर्थकरों के साक्षात् उपदेश पर आधारित ध्यानमार्गी जैनाचार-मीमांसा का मूलप्राण 'आवश्यक सूत्र' प्राचीन साहित्य में प्रतिपादित चार मूलसूत्रों में से एक मूलसूत्र ग्रन्थ है जो जीवन शुद्धि और दोष परिमार्जन का ऐसा जीवन्त भाष्य है जिसमें चतुर्विध संघ द्वारा समाचरणीय नित्य कर्त्तव्य कर्म के रूप में आचार के उन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है जिसके परिज्ञान से साधक अपनी आत्मा को निरखता-परखता है, साथ ही आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का वह श्रेष्ठतम उपाय है जिसकी साधना और आराधना से आत्मा शाश्वत सुख का अनुभव करता है, कर्म मल को नष्ट कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् आचरण से आध्यात्मिक आलोक को प्राप्त करता है। समस्त प्राणियों की अभिलाषा है— सुख-प्राप्ति । लेकिन इस सुख की प्राप्ति कैसे हो? इसके सम्बन्ध में समस्त प्राणी अनभिज्ञ होते हैं। यह कोई बाह्य वस्तु या फल नहीं जिसको किसी भी समय प्राप्त किया जा सके। सुख-दुःख तो आत्मा के अन्दर छिपे हुए हैं और उसकी प्राप्ति के कुछ क्रियाओं का सम्पादन अनिवार्य है। अत: जीवन की वह क्रिया जिसके अभाव में प्राणी आगे नहीं बढ़ सकता, वही आवश्यक कहलाती है। जीवित रहने के लिए जिस प्रकार श्वास लेना जरूरी है, ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन की पवित्रता के लिए जो क्रिया या साधना जरूरी है, अनिवार्य है। उसे ही आगम में 'आवश्यक' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। अनुयोगद्वारचूर्णि में आवश्यक को पारिभाषित करते हुए कहा गया है कि 'जो गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से आवासित करता है, वह आवश्यक है।' वहीं अनुयोगद्वार मल्लधारीय टीका में लिखा है - जो समस्त गुणों का निवास स्थान है, वह आवासक आवश्यक सूत्र है। जिस प्रकार 'आत्मशोधन' के लिए वैदिक परम्परा में 'सन्ध्या', बौद्ध परम्परा में 'उपन्यास', पारसियों में 'खोर देह अवेस्ता', यहूदी और ईसाइयों में प्रार्थना' तथा इस्लाम धर्म में 'नमाज़' प्रतिष्ठित है, उसी प्रकार जैन-साधना पद्धति में आध्यात्मिक शुद्धि' अथवा दोषों के निराकरण हेतु एवं गुणों की अभिवृद्धि के लिए 'षडावश्यक' पाठ का प्रतिपादन किया गया है जिसका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है: सामायिक आवश्यक जैनाचार दर्शन में श्रमण के लिए पांच चारित्रों में प्रथम चारित्र और गृहस्थ साधकों के चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत-सामायिक नैतिक साधना का अथ तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003 । - 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524615
Book TitleTulsi Prajna 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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