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'आवश्यक सूत्र' में आचार मीमांसा और उसकी प्रासंगिकता
-अनिल कुमार सोनकर
भारतीय आचारशास्त्रीय परम्परा में सम्पूर्ण जीवन का आधार और लोकस्थिति का व्यवस्थापक नीतिशास्त्र साध्य के निर्देशन एवं नैतिक मान्यताओं की समीक्षा के रूप में दर्शन, आचरण के विश्लेषण के रूप में विज्ञान और चरित्र-निर्माण के रूप में कला है। इसमें उन नियमों का निरूपण हुआ है जिन पर चलने से मनुष्य का ऐहिक एवं सनातन कल्याण होता है, समाज में स्थिरता और सन्तुलन स्थापित होता है तथा जिनके पालन से व्यक्ति और समाज दोनों का ही श्रेय होता है। स्वभाव-दशा की उपलब्धि' को परम श्रेय के रूप में स्वीकार करने वाले जैनाचार का भारतीय आध्यात्मिक साधना में अमिट स्थान है। भारतीय आचार की सभी धाराओं का परम श्रेय-'समत्व' जैनााचर-मीमांसा के अन्तर्गत, मानसिक क्षेत्र में 'अनासक्ति' या 'वीतरागता' के रूप में, सामाजिक क्षेत्र में 'अहिंसा' के रूप में, वैचारिकता के क्षेत्र में 'अनाग्रह या अनेकान्त' रूप में और आर्थिक क्षेत्र में 'अपरिग्रह' के रूप में अभिव्यक्त होता है। इस प्रकार जैनाचार-मीमांसा में परम श्रेय के रूप में जो मोक्ष है, वही धर्म है और जो धर्म है वही 'समत्व-प्राप्ति' है।
यदि सिद्धान्त रूप में यह स्वीकार किया जाये कि वेद और उपनिषद् ही समस्त भारतीय आचार दर्शनों का उद्गम हैं तो किसी अर्थ में उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जन सामान्य के कल्याण के लिए आचार-व्यवहार के सुव्यवस्थित नियमों का प्रतिपादन करने वाला जैनाचार व्यापक आदर्शों वाली वह वैज्ञानिक जीवनपद्धति है जो मनुष्य की आचार-शुद्धि और साधना के द्वारा चरम उन्नति का आश्वासन प्रतिपादित करते हुए मनुष्य को जैनत्व से सम्पन्न करने की क्षमता रखती है। साथ ही अन्यान्य परम्पराओं के विपरीत मुक्तिदाता के रूप में किसी एक सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न ईश्वर अथवा तीर्थंकर के अनस्तित्व का निर्देश करते हुए उस
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121
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