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________________ चित्तभित्ति न निज्झाए। 17 पट्टभूमिबन्धन या चित्रफलक या काष्ठफलकचित्र ( पेंटिंग बोर्ड ) - प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में लकड़ी के फलक पर चित्र बनाने की प्रथा थी। जो चित्र काष्ठ फलक पर बनाये जाते थे, उन्हें पट्टचित्र कहा जाता था, इसे ही संस्कृत साहित्य में चित्रफलक के नाम से अभिहित किया गया है । कालिदास के शाकुन्तल के छट्ठे अंक में दुष्यन्त के द्वारा शकुन्तला का छवि चित्र चित्रफलग पर बनाने का वर्णन है तत्र मे चित्रफलकगतां स्वहस्तलिखितां तत्रभवत्याः शकुन्तलायाः प्रतिकृतिमानयेति । 18 ‘विक्रमोर्वशीयम्' नाटक के द्वितीय अंक में चित्रफलक पर उर्वशी की प्रतिकृति बनाने का उल्लेख है। आगमसाहित्य में अनेक स्थलों पर चित्रफलक का निर्देश है। भगवतीसूत्र में एक मंख नामक भिक्षुक जाति का उल्लेख है जो चित्रफलक दिखाकर जीवन निर्वाह करता था। मंखली मंख हाथ में चित्रफलक लेकर 'सरवण' सन्निवेश के एक ब्राह्मण की गोशाला में वर्षावास करता है। 19 ―― वहीं पर मंखली पुत्र गोशालक के द्वारा भी चित्रफलक धारण करने का उल्लेख है। 20 इसी तरह चित्रफलक का उल्लेख भगवती सूत्र 15 / 51 में भी है । ज्ञाताधर्मकथा में वर्णित है मिथिला नगरी का एक चित्रकार बिना देखे अनिन्द्य सुन्दरी मैथिलकुमारी मल्ली का यथावत् चित्र चित्रफलक पर बना दिया, जिससे क्रुद्ध होकर मल्लदिन्नकुमार ने उस चित्रकार को देशनिकाला दे दिया। वही चित्रकार राजा अदिनशत्रु के यहाँ आश्रय ग्रहण करने के उपरान्त उस चित्रफलक को राजा के लिए सौंप देता है। 21 उसे देखकर राजा मल्लिकुमारी पर आकर्षित हो जाता है। - वृहत्कल्पभाष्य में चौसठ कलाओं में निष्णात एक वेश्या का वर्णन है, जिसने अपनी चित्रसभा में मनुष्यों के जातिकर्म, शिल्प और कुपित - प्रसादन का चित्रण कराया था। पट्टफलक (चित्रफलक ) पर बने हुए चित्र प्रेम को उत्तेजित करने में कारण होते थे। 22 किसी परिव्राजिका ने चेटक की कन्या राजकुमारी सुज्येष्ठा का चित्र एक फलक पर चित्रित कर राजा श्रेणिक को दिखाया, जिसे देखकर राजा अपनी सुध-बुध खो बैठा। 23 सागरचन्द्र कमलामेला के चित्र को देखकर उससे प्रेम करने लगा था | 24 पटचित्र (चित्रपट) - क्लॉथ पेंटिंग या कैनवास पेंटिंग – जो चित्र कपड़े या चमड़े पर बनाये जाते थे । ये चित्रपट मंदिरों तथा घरों की शोभा के लिए टांगे जाते थे। आज भी यह प्रथा तिब्बत, नेपाल, जयपुर आदि में जीवित है । भारत में पट्टचित्रों की अत्यन्त समृद्ध परम्परा प्राचीन काल से ही अविच्छिन्न रही है। इसमें इस देश की समृद्धि, प्रतिभा - वैभव, भक्ति - श्रद्धा तथा उदात्त जीवन की मर्माहलदिनी 16 तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524615
Book TitleTulsi Prajna 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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