________________
70
ध्यान का स्वरूप एवं महत्त्व तत्त्वार्थ सूत्र में
- डॉ. विनोद कुमार पाण्डेय
ध्यान का सामान्य स्वरूप -
यै चिन्तायाम् धातु के ल्युट् प्रत्यय का विधान करने पर ध्यान शब्द बनता है जिसका अर्थ है - मनन, विमर्श, विचार, चिन्तन, साधना इत्यादि । ध्यान में किसी एक पदार्थ पर मन एकाग्र करके स्थिर किया जाता है । इस तरह किसी एक ही वस्तु पर मन एकाग्र और स्थिर करने पर नवीन ज्ञान उत्पन्न होता है और नवीन अनुभव प्राप्त होता है। वस्तुतः यह अनुभव की, ज्ञान की और प्रत्यय की एकाग्रता अथवा एकत्र प्रवाह ही ध्यान कहा जाता है। जिस प्रकार किसी बर्तन से तेल उंडेले जाने पर तेल की अखण्ड धारा नीचे गिरती है, उसी प्रकार ध्यान में भी ध्येय वस्तु पर ध्यान की अखण्ड धारा छोड़नी पड़ती है। जैसे हम किसी वस्तु की ओर आँखों से निरन्तर देखते रहते हैं, वैसे ही ध्यान के समय मन को किसी वस्तु की ओर निरन्तर देखना होता है, इससे उस वस्तु के सम्बन्ध में नवीन अनुभव और ज्ञान प्राप्त होता है।
ध्यान में जब मन की शक्ति शरीर के किसी एक स्थान में केन्द्रित होकर कार्यक्षम हो जाती है तब शरीर में प्राणों का प्रवाह एक विशेष स्थान पर एकत्रित हो जाता है। इससे चक्र जागृत होते हैं, फलतः कुण्डलिनी जागृत होती है। इसी तरह ध्यान यदि किसी बाह्य वस्तु पर लगाया जाता है तो उसका परिणाम दूसरे प्रकार का होता है । जिस वस्तु पर ध्यान लगाया जाता है उसके विषय में सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ वस्तु का अर्थ भूलोक का कोई निर्जीव पदार्थ ही अपेक्षित नहीं है, प्रत्युत् इस शब्द का व्यापक अर्थ है।
मनुष्य जब किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करता है तब उसकी भावनाओं से उसका वासना शरीर और विचारों से उसका मनःशरीर आन्दोलित होने लगता है।
तुलसी प्रज्ञा अंक 119
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org