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________________ वैयावृत्त्य का वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से महत्व है। स्थानांग सूत्र में अपनी व दूसरों की सेवा के आधार पर चार प्रकार के पुरुषों का उल्लेख किया गया है। उत्तम पुरुषों की गणना में वे आते हैं जो अपेक्षा होने पर सेवा लेते हैं तो अवसर आने पर दूसरों की सेवा और सहयोग के लिए तत्पर भी रहते हैं। सेवा और स्वाध्याय दोनों ही तपस्या के भेद हैं पर दोनों में अन्तर है। स्वाध्याय करने वाला स्वयं को ही लाभान्वित करता है जबकि सेवा करने वाला स्वयं को और सेवा करने वाले को दोनों को लाभान्वित करता है। इतना ही नहीं, स्वाध्याय करने वाला भी यदि रोगाक्रान्त हो जाता है तो उसे भी वैयावृत्त्य करने वाले की ओर देखना पड़ता है। इस दृष्टि से सेवा का स्थान स्वाध्याय से ऊपर हो जाता है। सेवा का महत्त्व प्राचीनकाल में ही था, ऐसा नहीं है। आज भी सेवा का प्रसंग सामने हो तो सेवा मुख्य व अन्य सारे कर्म गौण हो जाते हैं। सेवा करने वाला रोगी के साथ अद्वैत स्थापित कर लेता है। वह रोगी की देह को अपनी देह मानकर परिचर्या करता है। आज विश्व भर में ईसाई मत का व्यापक प्रचार है। इसका कारण सेवाभावना ही है। ईसाई धर्म में सेवा को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया गया है। मदर टेरेसा ने एकमात्र सेवा भावना के आधार पर विश्व का सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार प्राप्त किया था। फादर विलियेन ने लम्बे समय तक कोढ़ियों की सेवा की। उस क्षण उनके आनन्द का कोई पार नहीं रहा जब वे स्वयं कोढ़ के रोग से ग्रस्त हो गए। उन्हें लगा कि अब मैं अपने भाइयों की सेवा और अच्छी तरह कर सकूँगा। सामान्य धरातल पर खड़े होकर चिन्तन करते हैं तो प्रश्न होता है क्या ऐसा संभव है ? कठिनाई के क्षणों में भी क्या आनन्द की अनुभूति की जा सकती है ? गहराई से विचार करें तो लगता है-ऐसा संभव है। जिस व्यक्ति के भीतर करुणा और संवेदना की धाराएँ सतत प्रवहमान रहती हैं उसके हाथ सेवा के लिए स्वत: ऊपर उठ जाते हैं। वह दूसरों की विपदा को अपनी विपदा समझता है और दूसरों के सुख में ही अपने सुख की खोज करता है। अपेक्षा है-करुणा और संवेदना ही हरीतिमा उत्तरोत्तर बढती रहे। सन्दर्भ : 1. उत्तरज्झयणाणि 30.6 2. उत्तराध्ययन बृहदवृत्ति, पृ. 600 3. वही, पृ. 609 4. सवार्थसिद्धि 9.20 5. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 9.28 व्यवहार भाष्य गा.4675-81 7. ठाणं 5/44, 45 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 । - 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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