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होकर कर्मत्व अवस्था को छोड़कर पुनः अकर्म पुद्गल रूप हो जाती है, जैसे कि मणि से मल द्रव्य का मलात्मक पर्याय रूप से विनाश हो जाने पर भी अमलात्मक (अन्य पुद्गल) पर्याय रूप से परिणमन हो जाता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि कथंचित् (अर्थात् पर्याय की अपेक्षा कर्म नष्ट होते हैं, कथंचित् द्रव्यपन की अपेक्षा) कर्म नष्ट नहीं होते हैं । कर्म सिद्धान्त का सम्यग्दर्शन
जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है और वह स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। अपने कर्म का कर्ता और उसके फल का भोक्ता भी वही है किन्तु अनादि से कर्म परतन्त्र होने के कारण वह अपने स्वभाव को भूला हुआ है। इस कारण वह किसी आपत्ति के आने पर 'करम गति टाली नाहि टलौ विधि का विधान ऐसा ही है', 'भवितव्यता दुर्निवार है' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग करता है। यह तो वही हुआ कि जब जैनदर्शन ने ईश्वर की दासता से मुक्ति दिलाई तो कर्म की दासता स्वीकार कर ली। यथार्थ में कर्म की गति अटल नहीं है। उसे हम अपने पुरुषार्थ से टाल सकते हैं । उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि कर्म की विविध अवस्थाएं हमारे पुरुषार्थ के अधीन हैं अतः कर्म का सम्यग्दर्शन करके हमें अनुकूल सत्पुरुषार्थ में लग जाना चाहिए।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है- 'अनेकान्त कोरा दर्शन नहीं है, यह साधना है। एकांगी आग्रह राग और द्वेष से प्रेरित होता है। राग-द्वेष क्षीण करने का प्रयत्न किये बिना एकांगी आग्रह या पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से मुक्ति नहीं पायी जा सकती। जैसे-जैसे अनेकान्त दृष्टि विकसित होती है, वैसे-वैसे राग-द्वेष क्षीण होता है। जैनदर्शन ने राग-द्वेष क्षीण करने के लिए अनेकान्त दृष्टि प्रस्तुत की। इसी आलोक में आज सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक क्षेत्रों में राग-द्वेष को नष्ट कर अनेकान्त को अपनाने की आवश्यकता है। जैन दर्शन का कर्मवाद आज अनेक समस्याओं से निजात दिलाने में समर्थ है।'
सन्दर्भ1. न्याय सूत्र 4/1 ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफलस्य दर्शनात्
सांख्य सूत्र 5/25 अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् 3. अभिधर्म कोष 4/1 कर्मजं लोकवैचित्र्यं चेतना मानसं च तत्
न्यायमञ्जरी, पृ. 279 5. प्रवचनसार की टीका, पृ. 165
तत्त्वार्थसूत्र, 2/41 7. आचार्य अकलंक : तत्त्वार्थवार्तिक, प्रथम भाग, पृ. 404-405
द्रव्यसंग्रह गाथा-7 9. कर्म सिद्धान्त 38
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तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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