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________________ संगति का दूसरों पर भी असर पड़ता है। कहा भी है -"जब लौ नहीं शिव लहूँ, तब लौं देहु यह धन पावना। सतसंग सुद्धाचरण श्रुत अभ्यास आतम भावना"। यहां पर सर्वप्रथम सत्संग पाने की भावना है। प्रद्युम्न-चरित्र में यह कथन है कि जो दुःख-दायक सामग्री थी वही सामग्री पुण्योदय के कारण सुख को उत्पन्न कराने वाली हो गई। सास ने घड़े में सर्प डाला, किन्तु पुण्योदय से वह सर्प फूलमाला बन गया। इन सब कथनों से स्पष्ट है कि पुण्य कर्म के निमित्त (कारण) से बाह्य सामग्री जुट जाती है। इस प्रकार कर्म का कार्य निमित्त जुटाना है। क्वचित् नहीं जुटाना भी है, एकान्ततः कुछ नियम नहीं हैं । षट्खण्डागम तथा मोक्षमार्गप्रकाशक में कहा है कि सातावेदनीय कर्मोदय से बाह्य सामग्री मिलती है ।28 पर सर्वकर्म उदित होकर बाह्य सामग्री जुटाने में हेतु होते ही हैं, ऐसा एकान्त नहीं है। कथंचित् कर्म जीव स्वभाव का पराभव करते हैं, कथंचित् नहीं करते यदि स्वतः, अकारण, स्वयं के कारण से ही जीव के स्वभाव का पराभव होता है तो वह सिद्धों में भी होना चाहिए। क्यांकि कारण तो कुछ मिलाना ही नहीं पड़ रहा है अतः सिद्ध है कि कर्म जीव स्वभाव का पराभव करते हैं। प्रवचनसार में कहा भी है, जैसे ज्योति (लौ) के स्वभाव के द्वारा तैल के स्वभाव का पराभव करके किया जाने वाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्म स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्याय कर्म के कार्य हैं। परमात्म-प्रकाश में भी इसी सन्दर्भ में कहा है-"दुक्खु वि सुक्खु वि बहु विहउ, जीवहं कम्मु जणेइ", अर्थात् जीव के अनेक तरह से सुख और दुःख को कर्म ही उपजाता है। इस प्रकार कर्म अनादि से जीव स्वभाव का पराभव कर रहे हैं यह कथंचित् सत्य है। परन्तु ये ही कर्म अन्तरंग कारण बनकर जीव स्वभाव का पराभव नहीं करते, इस दृष्टि से कथंचित पराभव नहीं भी करते हैं अथवा सिद्धों के स्वभाव का पराभव कर्म नहीं कर सकते। इस दृष्टि से भी कथंचित् जीव स्वभाव का पराभव कर्म नहीं भी करते। ज्ञानियों का विलास ही विचित्र है। अनेकान्तवाद में किसी को भी बोलने का मौका नहीं मिलता। 8. कर्म कथंचित् नष्ट होते हैं, कथंचित नष्ट नहीं होते अष्ट कर्म नष्ट किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। इस सिद्धान्त वचन से जाना जाता है कि कर्म नष्ट होते हैं, क्योंकि अनेक परमात्माओं ने कर्म नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया ही है। कथंचित् कर्म नष्ट नहीं होते। इस कथन का अभिप्राय यह है कि सकल कर्मपर्याय का विनाश होने पर भी कर्म द्रव्य का विनाश नहीं होता। वह कर्म द्रव्य अकर्म पर्याय रूप परिणमन कर जाता है अर्थात् पुद्गल द्रव्य वर्गणाएँ ही आत्मा के रागादि भाव का आश्रय लेकर कर्मरूप परिणमन कर जाती हैं और आत्मा को परतंत्र बना देती हैं। कदाचित् उस आत्मा से अलग तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - 39 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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