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________________ स्थिति में यदि ये दोनों संग्रह की अपेक्षा अल्पतर क्षेत्र वाली हैं तो हम यह नहीं कह सकते हैं कि संग्रह नैगम की अपेक्षा अल्पतर क्षेत्र वाला है। इसके अतिरिक्त एक और भी कठिनाई है कि तीनों शब्दनय प्रारम्भिक चार नयों वाले के ही स्तर की हैं किन्तु वे भिन्न-भिन्न स्तर की बातें करती हैं। कहीं-कहीं प्रारम्भिक चार नयों का संबंध वस्तु से जोड़ा गया है जबकि शब्दनय का संबंध उन व्यक्तियों से जोड़ा है जो उन वस्तुओं को जानते हैं। इतना स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार में शब्दनयों का वह स्वरूप नहीं है जो बाद के लेखकों में है। अन्त में अवश्य शब्दनयों का स्वरूप परवर्ती लेखकों के समान ही दिया गया है किन्तु मूलभूत कठिनाई यह है कि अनुयोगद्वार में दिये गये उदाहरण नयों के दिये गये उदाहरण से मेल नहीं खाते। संदर्भ1. अणुओगदाराई, संपादक-विवेचक- आचार्य महाप्रज्ञ, तीसरा प्रकरण, सूत्र-75, पृ. 63, प्रकाशक-जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं, प्रथम संस्करण, 1996 2. अणुओगदाराई, प्रथम प्रकरण, सूत्र-12, पृ. 17 3. अणुओगदाराई, पहला प्रकरण, सूत्र-13, पृ. 7 4. आगमओडगुणउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता। तन्नाणलद्धिसहिओ वि वोवउत्तो त्ति तो दव्वं ।। --विशेषावश्यक भाष्य, गाथा-29 __ अणुओगदाराई, पहला प्रकरण, सूत्र-15, पृ. 8 अर्थात् ऐसे व्यक्ति का मृत शरीर जो पहले आवश्यक को जानता था पर वर्तमान में ज्ञानशून्य है। 7. अर्थात् ऐसा नवीन उत्पन्न होने वाला शरीर जो भविष्य में आवश्यक को जानेगा पर वर्तमान में ज्ञानशून्य है। 8. इसके भी लौकिक, कुप्रावचनिक और लौकोत्तरिक यह तीन भेद किये हैं। जाणगसरीर-भवियसरीर वतिरित्तं दव्वावस्सयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-लोइयं कुप्पावयणियं लोगुत्तरियं ॥ - वही, सूत्र-18, पृ.१ 9. विशेषावश्यक भाष्य गाथा-44, 45 10. अणुओगदाराई, पहला प्रकरण, सूत्र-14, पृ. 8 अपि च, तुलनीय, आचार्य महाप्रज्ञ का विवेचन, टिप्पण-सूत्र-14, पृ. 27 11. अणुओगदाराई, ग्यारहवां प्रकरण, सूत्र-568, पृ. 307 12. वही, सूत्र-568, पृ. 325 13. वही, सूत्र-568, पृ. 325-26 14. वही, ग्यारहवां प्रकरण, सूत्र-568, पृ. 307, अपि च, तुलनीय, आचार्य महाप्रज्ञ का विवेचन, पृ. 326 15. वही, पृ. 326 16. वही, उज्जुसुओ दुविहं संखं इच्छइ, तं जहा-बद्धाउयं च अभिमुहनामगोत्तं च। 17. बृहत्कल्पभाष्य (चूर्णिसहित), पृ. 44, सं.-चतुरविजयपुण्यविजय, प्रका.-श्री जैन आत्मानन्दसभा, भावनगर, 1933 18. वही, अपि च, तुलनीय, आचार्य महाप्रज्ञ का विवेचन, पृ. 326 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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