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तीनों प्रकार के बंध पौद्गलिक हैं। इनमें बंधप्रत्ययिक मुख्य बंध परिलक्षित होता है, उसमें परमाणु का पारस्परिक सम्बन्ध नियम के आधार पर नियत है अन्यत्र ऐसा नहीं है। बंध को आगमोत्तर साहित्य में पौद्गलिक माना गया है 103 जबकि भगवती में प्राप्त अनादि विस्रसा बंध धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय में प्राप्त है तथा सादि विस्रसा बंध पुद्गल का माना गया है। 104 प्रयोगबन्ध जीव के व्यापार से सम्बन्ध रखता है। 105 तत्त्वार्थसूत्र के 5/24 सूत्र के भाष्य में बंध को प्रयोग, विस्रसा एवं मिश्र के भेद से तीन प्रकार का कहा है 106 जिसको भगवती में पुद्गल का परिणाम कहा गया है 107 तथा बंध को प्रयोग एवं विस्रसा के भेद से दो प्रकार का बतलाया गया है। 108 तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में विस्रसा बंध को सादि एवं अनादि उभय प्रकार का बतलाया है तथा अनादिविस्रसा बंध के उदाहरण के रूप धर्म, अधर्म एवं आकाश का उल्लेख किया है। 109 यह स्पष्ट ही है कि ये पौद्गलिक नहीं है। पुद्गल के स्वभाव रूप में जिस बंध का तत्त्वार्थ आदि ग्रंथों में उल्लेख हुआ है उसको सादि विस्रसा बंध ही समझना चाहिए। बंध पांचों अस्तिकाय में ही किसी-न-किसी रूप में उपलब्ध है, अत: उसको मात्र पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता। परमाणु की गति
जैन दर्शन के अनुसार जीव और पुद्गल - ये दो द्रव्य गतिशील हैं। इनमें तीव्रता से गति करने की शक्ति है । जिस प्रकार मुक्त जीव एक समय में लोकान्त तक पहुंच जाता है, उसी प्रकार परमाणु भी एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर पर जा सकता है । 110 धर्मास्तिकाय परमाणु को गति के लिए प्रेरित नहीं करता किंतु जब वह गति करता है तो उसका सहयोगी बनता है। परमाणु पुद्गल की गति का विमर्श आधुनिक विज्ञान के गति सिद्धान्त के संदर्भ में करणीय है ।
सन्दर्भ
1. तत्त्वोपप्लवसिंह (जयराशिकृत) (ले. जयराशि, वाराणसी 1987), पृ. 1 2. सांख्यकारिका, 3
3. वैशेषिक दर्शनम् (संपा. उदयवीर शास्त्री, गाजियाबाद, 1972 ) 1/1/5
4. अभिधर्मकोश (ले. आचार्य वसुबन्धु, इलाहाबाद, 1958) 1/124, पृ. 38
5. श्वेताश्वतरोपनिषद्, 4 / 10, मायां तु प्रकृतिं विद्या ।
6. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई), 2/129
7. Sikdar, J.C., 1987, P.V. Research Institute, Varanasi-5
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003
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