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सम्बन्धी सिद्धान्तों का निरूपण सम्भवत: इसी ग्रन्थ में किया गया है । ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इससे पूर्व ज्योतिष-ग्रंथ में ही गणित सम्बन्धी सिद्धान्तों के लिये एक या दो अध्याय अलग से दे देने की परम्परा थी पर भारतवर्ष में सर्वप्रथम सर्वांगपूर्ण गणित ग्रंथ यही है । इस ग्रंथ के महत्त्व को ध्यान में रखकर ही इसके अब तक दो प्रकाशन हो चुके हैं। प्रथम मद्रास से प्रो. एम. रंगाचार्य के सम्पादकत्व में तथा प्रो. लक्ष्मीचन्द के सम्पादकत्व में। महावीराचार्य का अन्य ग्रन्थ ज्योतिष पटल है जो कि ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जो अभी तक अप्रकाशित ही है ।
संहिता विषयक 4000 लोक प्रमाण केवलज्ञानहोरा के रचयिता जैनाचार्य चन्द्रसेन हैं । इस ग्रन्थ का समय ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है । पर यह प्रायः निश्चित सा है कि कल्याण वर्मा (6ठी शताब्दी) की कृति सारावली के पश्चात् ही इसका प्रणयन हुआ है। इसमें यत्र-तत्र कन्नड़ भाषा का भी प्रयोग हुआ है, जिससे अनुमान किया जाता है कि कर्नाटक में तात्कालीन प्रचलित ज्योतिष सिद्धान्तों से ग्रंथकार विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं।
जैन ज्योतिषाचार्य श्रीधर (लगभग 10वीं शताब्दी) कर्नाटक प्रान्त के निवासी थे । उनके पिता का नाम बलदेव शर्मा था तथा माता का नाम अव्वोका । उनके ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में वे शैव थे परन्तु बाद में जैन धर्मावलम्बी हो गये, वे ज्योतिर्ज्ञान विधि एवं जातक तिलक नामक दो ज्योतिष ग्रन्थों के प्रणेता माने जाते हैं । जातक तिलक की रचना कन्नड़ भाषा में की गई है तथा शेष ग्रंथों की रचना संस्कृत में । "
दसवीं शताब्दी में ही आचार्य दाननन्दि के प्रमुख शिष्य भट्वोसरि ने प्रश्न शास्त्र पर आयज्ञानतिलक नामक एक विस्तृत ग्रंथ लिखा । प्राकृत भाषा में रचित प्रश्न शास्त्र सम्बन्धी यह एक अत्यन्त प्रसिद्ध रचना समझी जाती है । 12
दिगम्बर जैनाचार्य दुर्गदेव (11वीं शती) ज्योतिष शास्त्र के महान विद्वान् थे । उनके संयमदेव थे । प्राकृत भाषा में उन्होंने प्रश्न शास्त्र एवं शकुन शास्त्र पर क्रमशः अर्घकाण्ड एवं रिठ्ठसमुच्चय नामक दो ग्रंथ लिखे, जिनमें से दूसरे ग्रंथ की रचना 1032 ई. में उन्होंने कुम्भनगर (अनंगा) में की थी। 13
मल्लिसेण संस्कृत एवं प्राकृत दोनों भाषाओं के उद्भट विद्वान् थे । जिनसेन सूरि उनके पिता थे जो दक्षिण भारत के धारवाड़ जिले के गदकतालुका नामक स्थान के निवासी थे । 1043 ई. में आयसद्भाव नामक एक फलित ज्योतिष ग्रंथ की उन्होंने रचना की, जिसमें सिंह, गदहा, हाथी, कौआ आदि अनेक पशु-पक्षियों के वर्णन के साथ-साथ मानव जीवन पर उनके पड़ने वाले प्रभावों का भी उल्लेख किया गया है। इस ग्रंथ से यह भी ज्ञान होता है कि सुग्रीव आदि अनेक पूर्ववर्ती विद्वानों ने भी इस विषय पर ग्रंथ लिखे हैं। 14
श्वेताम्बर परम्परा के जैनाचार्य मलयगिरि (11वीं शती) ने सूर्य - पण्णत्ति, जम्बूद्वीपपण्णत्ति, चन्द्र- पण्णत्ति, ज्योतिष्करण्डक, वृहत् क्षेत्रसमास, वृहत्संग्रहाणि आदि प्राचीन ग्रंथों पर टीकाएँ लिखी, जिसमें अनेक ज्योतिषीय सिद्धान्तों की मीमांसा की गई है।
नरपति 12वीं शती के एक जैनाचार्य थे, जिनके पिता का नाम आभ्रदेव था तथा जो दक्षिण भारत के धार नामक स्थान के निवासी थे । 1175 ई. (वि.सं. 1232 ) में उन्होंने
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002
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