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परवर्ती ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि वराहमिहिर की रचनाओं पर भी इस ग्रन्थ के प्रभाव पड़े होंगे।
कालकाचार्य ने ज्योतिष सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रन्थ लिखने की परम्परा प्रारम्भ की। मध्यप्रदेश के धारावास के राजा वैरसिंह के वे पुत्र थे। उनकी माता का नाम सुरसुन्दरी था तथा बहन का नाम सरस्वती था। वे निमित्त शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे। निमित्त शास्त्र एवं संहिता-ग्रंथ की रचना का उन्होंने परवर्ती विद्वानों के लिये पथ-प्रदर्शन का कार्य किया। प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ वृहत्जातक में कालक-संहिता को उद्धृत किया है जिससे स्पष्ट है कि उन्होंने संहिता-ग्रंथ की रचना की। उनके अन्य ग्रंथों-निशीथचूर्णि एवं आवश्यकचूर्णि से ऐसा अनुमान किया जाता है कि वे तृतीय एवं चतुर्थ शताब्दी के एक जैन ज्योतिर्विद् थे।
प्रश्नशास्त्र जैन-ज्योतिष का एक प्रमुख अंग है। चतुर्थ एवं पंचम शताब्दी में जैनाचार्यों द्वारा इससे सम्बन्धित अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया गया। अर्हच्चूड़ामणिसार भी एतद् विषयक एक महत्त्वपूर्ण मौलिक ग्रंथ है जो परवर्ती जैन विद्वानों के लिए प्रेरणास्त्रोत है। विद्वानों का अनुमान है कि इसकी रचना भद्रबाहु द्वारा की गयी है।
प्रश्न शास्त्र पर एक अन्य ग्रंथ केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि भी उपलब्ध होता है। इस ग्रंथ में बहु उपयोगी प्रश्नों के आधार पर फलोक्त कथन किया गया है। इसका सम्पादन एवं अनुवादन नेमीचन्द्र शास्त्री द्वारा किया गया है।
हरिभद्र सूरि (750 ई.पू.) राजस्थान के निवासी थे तथा याकिनी महत्तर नामक एक जैन साध्वी के शिष्य थे। चित्तौर-दरबार में सम्भवत: वे राजपंडित थे। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने दर्शन, धर्म, न्याय, ज्योतिष विषयक विभिन्न शाखाओं पर लगभग 1440 ग्रंथों की रचना की। इनमें से लगभग 100 ग्रंथों का प्रकाशन विभिन्न संस्थाओं द्वारा किया गया है। उनकी दो रचनाओं लघुसंघयणी एवं आर्यरक्षित प्रणीत अनुयोगद्वार पर लिखी उनकी टीका में अनेक ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन पाया जाता है।'
जलौर के उद्योतनसूरि ने प्राकृत में कुवलयमाला नामक एक ज्योतिष ग्रंथ की रचना 777 ई. (शक 699) में की, जिसमें फलित ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र संबंधी सिद्धान्तों एवं फलादेशों का निरूपण किया गया है।'
प्रश्न शास्त्र से सम्बन्धित अन्य ग्रंथों में चन्द्रोन्मीलन एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसकी रचना का समय 8वीं शताब्दी में माना जाता है। अज्ञातकृर्तक इस ग्रंथ का विषयवस्तु की प्राचीनता के आधार पर केरल प्रश्न-शास्त्र की परम्परा का श्रीगणेश इसी ग्रंथ से हुआ माना जाता है।
महावीराचार्य एक प्रसिद्ध जैन गणितज्ञ हुये थे। इनका समय लगभग 850 ई. माना जाता है। ये राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष नृपतुंग के दरबार में उच्च पद पर आसीन थे। इनका राज्यकाल दक्षिण भारत के मान्यखेत पर 815 ई. से 877 ई. तक माना जाता है। इनके द्वारा गणित एवं ज्योतिष सम्बन्धी तीन ग्रंथों के लेखन का उल्लेख प्राप्त होता है। गणित सार-संग्रह, ज्योतिष-पटल एवं षट्त्रिंशिका। 9 अध्यायों में रचित गणित सार-संग्रह में अंकगणित, बीजगणित आदि सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन है। शून्य द्वारा विभाजन एवं गुणोत्तर श्रेणी
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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