SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1. बंध-रागी जीव उदयप्राप्त जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है और उसके आश्रय से जो अनेक प्रकार के पौद्गलिक कर्म से सम्बन्ध होता है, उसका नाम बन्ध है।" कषाय से संयुक्त प्राणी योग के आश्रय से कर्मरूप परिणत होने के योग्य जो पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध कहलाता है। मिथ्यात्वादि परिणामों से जो पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि रूप परिणमित होता है, वह ज्ञानादि को आवृत्त करता है, इस प्रकार का सम्बन्ध बंध है । 2. सत्ता-बंधने के पश्चात् कर्म तत्काल फल नहीं देता, उस अवस्था को सत्ता कहते हैं। 3. उदय-कर्म की यथाकाल फल को प्राप्त कराने की सामर्थ्य का परिपाक उदय है 50 अथवा द्रव्यादि का निमित्त पाकर जो कर्म का फल प्राप्त होता है, उसे उदय कहा जाता है। 4. उदीरणा- अधिक स्थिति व अनुभाग को लिए हुए जो कर्म स्थित हैं, उनकी उस स्थिति व अनुभाग को हीन करके फल देने को उन्मुख करना, उसका नाम उदीरणा है। कर्म के फल देने के दो प्रकार हैं-समय पर फल देने का नाम उदय और असमय में फल देने का नाम उदीरणा है। जैसे- पेड़ पर लगा आम पके तो वह सामयिक पकना है और उसे कच्ची अवस्था में तोड़कर भूसे वगैरह में दबाकर जल्दी पका लिया जाए तो वह असमय का पकना है। इसी तरह बंधे हुए कर्म जीव के परिणामों का निमित्त पाकर असमय में भी उदय में लाकर नष्ट किए जा सकते हैं, इसे उदीरणा कहते हैं । 5. अपकर्षण-कर्मप्रदेशों की स्थितियों के हीन करने का नाम अपकर्षण है। 6. उत्कर्षण-कर्मप्रदेशों की स्थिति के बढ़ाने को उत्कर्षण कहते हैं। 7. उपशम- भस्म के समूह से ढकी हुई अग्नि के समान कर्म के उदय न होने रूप लक्षण वाली अवस्था का नाम उपशम है।" 8. संक्रम- प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों का अन्यथा स्वरूप से परिणमाना अथवा यही अन्य प्रकृति रूप परिणमाना, इसका नाम संक्रमण करण है। विवक्षित प्रकृति का जो अन्य प्रकृति में गमन या परिवर्तन होता है, उसे संक्रम या संक्रमण कहते हैं । १. निधत्ति—जो कर्म का प्रदेशपिण्ड न तो उदय में दिया जा सके और न अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त भी किया जा सके, उसे निधत्त या निधत्ति कहा जाता है। उद्वर्तना और अपवर्तना करणों को छोड़कर शेष करणों के अयोग्य रूप से जो कर्म को व्यवस्थापित किया जाता है, उसे निधत्तिकरण कहते हैं। कर्म और गुणस्थान- मोक्ष के लिए प्रयत्नशील जीव की अभ्युन्नति के सूचक चौदह दर्जे हैं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं। ज्यों-ज्यों जीव ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता जाता है, उसके कर्मों के बंध, उदय और सत्ता में ह्रास होता जाता है। जैसे कर्मस्तव गाथा 2-3 में बतलाया गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में दस प्रकृतियों के बंध का विच्छेद होता है। इसी तरह आगे पांचवें गुणस्थान में चार का, छठे में छ: का, सातवें में एक का, आठवें में छत्तीस का, नौवें में पांच का, दसवें में सोलह का और तेरहवें संयोग गुणस्थान में एक सातावेदनीय का बंधविच्छेद होता है। इस प्रकार प्राकृत ग्रंथों में कर्मसिद्धान्त का विशद विश्लेषण किया गया है। 78 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy