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________________ ९. आत्मज्ञान एक रहस्यमय चीज है। ९. मैं स्वयं आत्मा हूँ। अपने को जानना ही आत्मज्ञान है। १०. भोगोपभोग के पदार्थ हमें सुख देते हैं। १०. यदि हमारा मन अशान्त है तो हमें कोई भी पदार्थ सुख नहीं दे सकता। ११. आत्मज्ञान के लिए शरीर के परे जाना ११. आत्मा को जानने के लिए सबसे पहले होगा। शरीर को जानना होगा। १२. शरीर अलग है, मन अलग है। क्रोध मन १२. मन के विकार ही शरीर में रोग रूप में में आता है, कैंसर शरीर में होता है। इन परिणत होते हैं। दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं है। १३. नास्तिक वह है जो ईश्वर को नहीं मानता। १३. नास्तिक वह है जो यह मानता है कि वह बुरा काम करके उस के फल से बच सकता है। १४. शरीर का मुख्य घटक परमाणु है, उन्हीं १४. शरीर में मुख्य स्थान स्पन्दन का है, ये से शरीर का निर्माण होता है। स्पन्दन ही हमारी मन:स्थिति और शरीर की स्थिति का निर्धारण करते हैं। १५. हमारा अस्तित्व हमारे शरीर तक सीमित १५. हमारा आभामण्डल हमारे शरीर के बाहर तक फैला है। वह आभामण्डल भी हमारे अस्तित्व का हिस्सा ही है और वह आभामण्डल शरीर से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। १६. हम सबका अस्तित्व अलग-अलग है। १६. मुक्त आत्माओं को छोड़कर हम सब ___ हम स्वयं में पर-निरपेक्ष रूप में स्थित हैं। एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। १७. श्रद्धा वह है, जहाँ तर्क नहीं है। १७. श्रद्धा वह है जो हमें दूसरों की अच्छाई के प्रति ग्रहणशील बनाती है। १८. धर्म अंध-विश्वासों पर टिका है। १८. धर्म हमारे उन अंध-विश्वासों पर चोट करता है जिन्हें हम सहज ही सदा पाले रहते हैं। १९. पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु जड़ है। १९. पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु सजीव है, इन्हें सुख-दुःख नहीं होता। इन्हें भी सुख-दुःख होता है। २०. हमें दूसरों के सुख-दुःख से कोई प्रयोजन २०. दूसरों के प्रति क्रूरता का भाव हमें कठोर नहीं। हमें अपना ही सुख साधना है। बना देता है और हमारी ग्रहणशीलता तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 0 - 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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