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________________ जैन दर्शन के अनुसार ज्ञानावरण आदि आठ कर्म माने गये हैं। प्रत्येक कर्म के अपने अलग-अलग कार्य हैं । उन आठ कर्मों में छट्ठा कर्म है ---- नाम कर्म । नाम कर्म को शरीर रचना का मुख्य आधार माना गया है। नाम कर्म के कारण जिस शरीर की रचना होती है उसकी तुलना हम शरीर विज्ञान के साथ कर सकते हैं । शरीर वैज्ञानिकों ने शरीर के सूक्ष्मतम अंगों को जानने का प्रयत्न किया और उसमें सफलता भी प्राप्त की। शरीर शास्त्रियों ने शरीर का तो ज्ञान प्राप्त किया और कर भी रहे हैं किंतु शरीर का ऐसा निर्माण क्यों होता है? कैसे होता है? किसके द्वारा होता है? ऐसे प्रश्नों पर वह भी चुप्पी साध लेता है। किंतु कर्म सिद्धान्त के आधार पर इन गूढ़ रहस्यों को जाना जा सकता है। शरीर विज्ञान की खोज का उपक्रम तो मात्र 300-400 वर्षों से चल रहा है। जबकि अध्यात्म के आचार्यों ने हजारों वर्ष पूर्व ही शरीर रचना के हेतु का उल्लेख कर्म सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि नाम कर्म शरीर रचना का मुख्य हेतु है, क्योंकि जीव का शरीर आत्मा के अधीन नहीं है। यह आत्मा की अपनी रचना नहीं है। आत्मा चाहे जैसा शरीर का निर्माण नहीं कर सकती। शरीर का सृजन तथा शरीर से संबंधित इन्द्रियां, अंगोपांग, आकृति, संस्थान और मजबूती आदि इन सबकी रचना नाम कर्म के अधीन है। इसी प्रकार शरीर विज्ञान की दृष्टि से यदि एक शरीर-शास्त्री से पूछा जाए कि शरीर रचना का आधार तथा शारीरिक विकास की दृष्टि से व्यक्तियों में पाई जाने वाली परस्पर भिन्नता का क्या कारण है? तो उसका उत्तर होगा 'जीन'। जीव जिस प्रकार के Genes ग्रहण करता है उसी के अनुरूप व्यक्ति के शरीर की रचना होती है। जैसा Genes होगा वैसा आदमी का व्यक्तित्व बनेगा। नाम कर्म की परिभाषा जिस कर्म के उदय से जीव नारक, तिर्यंच आदि नामों से संबोधित होता है अथवा जो जीव को विविध पर्यायों में परिणत करता है या जो जीव को गत्यादि पर्यायों का अनुभव करने के लिए उन्मुख करता है उसे नाम कर्म कहते है। नाम कर्म को चित्रकार की उपमा से उपमित किया गया है। जिस प्रकार चित्रकार विविध वर्गों से अनेक प्रकार के सुन्दर-असुन्दर चित्र बनाता है उसी प्रकार नाम कर्म में स्थित चौरासी लाख प्रकार के जीवयोनिगत जीवों के विविध चित्र-विचित्र शरीर और उनसे संबद्ध अंगोपांग आदि की रचना करता है और उसी के अनुसार हाथ, पैर, जीभ, कान, नाक आदि का निर्माण होता है। नाम कर्म और ग्रंथि तंत्र कर्मवाद की यह प्रकृति रही है कि हमारे साथ जितने भी कर्मों का संबंध होता है उनमें विरोधी युगलों का भी समावेश होता है। जैसे शुभ नाम कर्म है तो अशुभ नाम कर्म भी होगा। सभी व्यक्तियों में ये दो विरोधी प्रकृतियां पाई जाती हैं। फिर भी दो विरोधी प्रकृतियां 64 तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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